________________
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ - ज्ञान को छोड़कर श्रद्धा, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि अनन्त गुण भी ज्ञान की तरह आत्मा में सत् रूप हैं। अपनी-अपनी सत्ता रखते हैं। जो-जो सत् होता है वह उत्पाद, व्यय, धुव युक्त होता है अर्थात् गुण रूप कायम रहकर पर्याय में बदला करता है। इसलिये अन्य गुण भी है। उनकी पर्याय भी है पर वे पर्यायें ज्ञेयाकार रूप नहीं है। अतः सविकल्पक नहीं है और सामान्य में तो अर्थात् गुण रूप से तो ज्ञान भी निर्विकल्प है। शेष सब भी निर्विकल्प है।
ततो वक्तुमशक्यत्वान्जिर्विकल्पस्य वरतुनः ।
तदुल्लेवं समालेख्य ज्ञानद्वारा निरूप्यते || ११६५ ॥ सूत्रार्थ - इसलिये निर्विकल्प वस्तु के कहने के लिये अशक्य होने से ( अनिर्वचनीय होने से ) उसके उल्लेख (लक्षण-स्वरूप) को जांच कर ज्ञान द्वारा निरूपण किया जाता है।
भावार्थ - अब शिष्य को आचार्य महाराज एक नियम और समझाते हैं कि निर्विकल्प चीज शुद्ध होती है। उसका वचन में निरूपण नहीं आया करता। हाँ ज्ञान स्वपर प्रकाशक है वह अपने को भी जानता है और शेष सब गुणों को भी जानता है। सब गुणों की मार्समें शेष बन गार राक्षामें भाती है और उनके स्वरूप को जान लेता है। अतः भाई उनका स्वरूप ज्ञान में जाँचकर फिर कुछ शब्द में निरूपण किया जाता है।
स्वापूर्वार्थद्वयोरेव ग्राहक ज्ञालमेकशः।
नात्र ज्ञानमपूर्वार्थों ज्ञानं ज्ञानं परः परः ॥ ११६५ ॥ सूत्रार्थ - ज्ञान एकसाथ स्व और अपूर्वार्थ (पर) दोनों का ही ग्राहक (जानने वाला) है पर ज्ञान अ है। ज्ञान ज्ञान है। पर ( अपूर्वार्थ) है।
भावार्थ - ज्ञान एक साथ अपने को और शेष सब गुणों को जान जरूर लेता है पर इसका यह मतलब नहीं कि ज्ञान उन रूप हो जाता हो या उनकी पर्याय बन जाता हो या वे गुण ज्ञान रूप बन जाते हों या ज्ञान की पर्याय बन जाते हों। ज्ञान-ज्ञान ही रहता है। वे-वे ही रहते हैं। इसलिये शुद्ध आत्मानुभूति सम्यक्त्व नहीं हो जाता क्योंकि वह ज्ञान की पर्याय है।
स्वार्थो वै ज्ञानमात्रस्य ज्ञानमेकं गुणश्चितः ।
परार्थः स्वार्थसम्बन्धी गुणाः शेषे सुखादयः ॥ ११६६ ॥
निश्चय से ज्ञान मात्र आत्मा का एक ज्ञान गण स्वार्थ है। शेष सुखादिक गुण स्वार्थ सम्बन्धी परार्थ हैं अर्थात् सुखादिक एक ही आत्मा के अन्य गुण हैं पर ज्ञेय हैं तो भी अन्य पदार्थवत् भिन्न सत् रूप नहीं है।
. भावार्थ - ज्ञान को स्व कहते हैं। शेष सबको पर कहते हैं। उस पर में एक तो आत्मा से भिन्न छः द्रव्य हैं वे भी सब पर हैं। दूसरे आत्मा के ज्ञान गुण के अतिरिक्त आत्मा में जितने दर्शन, चारित्र, श्रद्धा, बीर्य आदि गुण हैं वे भी सब ज्ञान के लिये पर हैं। जिस प्रकार ज्ञान के लिये अन्य पदार्थ ज्ञेय हैं उसी प्रकार वे अन्य गुण भी ज्ञेय हैं। पर पदार्थों को परार्थ अर्थात् पर अर्थ अर्थात् पर पदार्थ कहते हैं और अन्य गुणों को स्वार्थ सम्बन्धित पदार्थ कहते हैं अर्थात् ज्ञान पदार्थ से एक द्रव्य रूप से सम्बन्धित हैं पर ज्ञेय की अपेक्षा पर पदार्थ हैं। भिन्न हैं। इसलिये स्वात्मानुभूति साक्षात् सम्यक्त्व नहीं है किन्तु स्वार्थसम्बन्धी परार्थ है।
तद्यथा सुरवदुरवादिभावो जीवगुणः खयम् ।
ज्ञानं तद्वेटकं नूनं जार्थाज्ञानं सुरवादिमन् ॥ ११६७॥ सूत्रार्थ - वह इस प्रकार कि सुख-दुःख-आदि-भाव स्वयं जीव का गुण है और ज्ञान निश्चय से उसका वेदन करने वाला है। पदार्थ रूप से ज्ञान सुखादिमय नहीं हो जाता। ___ भावार्थ - उपर्युक्त का भाव यह है कि ज्ञान के अतिरिक्त अन्य गुण भी स्वयं उस आत्मा के गुण हैं पर वे स्वयं अपने को या पर को जानने वाले नहीं हैं। ज्ञान ही उन सबका ज्ञाता है। वेदन-अनुभवन भी ज्ञान करता है। सुखीदुःखी, रागी-द्वेषी भी ज्ञान होता है पर फिर भी गुण लक्षण भेद से प्रत्येक गुण भिन-भिन पदार्थ हैं इसलिये ज्ञान स्वयं उन रूप नहीं हो जाता किन्तु उनका ज्ञाता ही कहा जाता है। यह दूसरी बात है कि अज्ञानी का ज्ञान भेद विज्ञान के अभाव के कारण अपने में और अन्य गुणों में भेद का अनुभव नहीं कर सकता है और ज्ञान को ही कर्मचेतना और