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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक ३४५ भावार्थ - शङ्काकार आत्मानुभूति को सम्यक्त्व का अनात्मभूत लक्षण न मानकर आत्मभूत लक्षण मानता है और कहता है कि यही साक्षात् सम्यक्त्व है अर्थात् श्रद्धागुण की पर्याय है। अपनी बात की पुष्टि में युक्ति भी देता है क्योंकि वह सभ्यग्दृष्टि के ही होती है और मिध्यादृष्टि के कभी किसी अवस्था में नहीं होती। अतः उसे सम्यक्त्व मानना ही ठीक है। उसकी इस शङ्का का आधार यह है कि वह ज्ञान और श्रद्धान गुण की पर्याय का परस्पर अन्तर नहीं जानता है तभी तो ज्ञान की पर्याय को श्रद्धा की पर्याय कहता है। सो उत्तर में आचार्य देव उसे दोनों गुणों की पर्याय की भिन्नता का विवेक कराते हैं। समाधान सूत्र १९५८ से १९६० तक ३ जैवं यतोऽनभिज्ञोऽसि सत्सामान्यविशेषयोः । अप्यनाकारसाकारलिङ्ग‌योस्तद्यथोच्यते ॥ ११५८ ॥ सूत्रार्थ - ऐसा नहीं है क्योंकि तू सत्सामान्य और सत्विशेष में और अनाकार साकार लक्षणों में अजान है। वह इस प्रकार कहा जाता है। आकारोऽर्थविकल्पः स्यादर्थः स्वपरगोचरः । दवा झाद्धि लक्षणम् ॥ ११५९ ॥ सूत्रार्थं आकार (शब्द का अर्थ ) " अर्थविकल्प है " है । अर्थ ' स्व + पर पदार्थ है। विकल्प उपयोग है अर्थात् स्व पर के आकार का अवभासन है। यह ज्ञान का ही लक्षण है । ( भाव तीसरी पुस्तक में प्रमाण में स्पष्ट हो चुका है ) । नाकारः स्यादनाकारो वस्तुतो निर्विकल्पता । - शेषानन्तगुणानां तल्लक्षणं ज्ञानमन्तरा ।। ११६० ।। सूत्रार्थ - जो आकार रूप नहीं है, वह निराकार है, वही वस्तुपने से निर्विकल्पता है? वह (निर्विकल्पता ) ज्ञान को छोड़कर शेष अनन्त गुणों का लक्षण है। भावार्थ - (सूत्र १९५८ से १९६० तक ) उसे यह बतलाया है कि सत् सामान्य गुण को कहते हैं और सत् विशेष पर्याय को कहते हैं। सामान्य में अर्थात् गुण में तो सभी गुण निर्विकल्प हैं किन्तु पर्याय में एक ज्ञान गुण सविकल्प है शेष सब निर्विकल्प हैं। ज्ञान की पर्याय के ज्ञेयाकार रूप होने को सविकल्प कहते हैं अर्थात् स्व और पर के आकार रूप परिणमन करने को सविकल्प कहते हैं। यह बात एक ज्ञान गुण में ही है और किसी गुण में नहीं है। अतः भाई शुद्ध आत्मानुभूति जो ऊपर कही गई है व सविकल्प है और शुद्ध सम्यक्त्व निर्विकल्प है। अतः वह शुद्ध आत्मानुभूति साक्षात् सम्यक्त्व नहीं है। अविनाभाव होने से सहचर है। बाह्य लक्षण है। अनात्मभूत लक्षण है। शङ्का नन्वस्ति वास्तवं सर्वं सत्सामान्यं विशेषवत् । तत् किं किंचिटनाकारं किंचित्साकारमेव तत् ॥ ११६१ ॥ शङ्का - सत्सामान्य और सत्विशेष सब (दोनों) वास्तविक हैं तो फिर वह कोई अनाकार और कोई साकार ही क्यों है ? समाधान सूत्र ११६२ से १९७७ तक १६ सत्यं सामान्यवज्ज्ञानमर्थाच्चारित विशेषवत् । यत्सामान्यमनाकारं साकारं सद्विशेषभाक् ॥ ११६२ ॥ सूत्रार्थ - ठीक हैं पदार्थरूप से ज्ञान सामान्य (गुण) रूप भी है और विशेष (पर्याय ) रूप भी है। जो सामान्य में अनाकार है और विशेष में साकार है अर्थात् ज्ञान गुण रूप भी है, पर्याय रूप भी है, गुण में निराकार है। पर्याय में साकार है। ज्ञानाद्विना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः सल्लक्षणाङ्किताः । सामान्याद्वा विशेषाद्वा सत्यं नाकारमात्रकाः ॥ ११६३ ॥ सूत्रार्थ - ज्ञान के बिना सब गुण सत्-लक्षण से अङ्कित ( युक्त ) कहे गये हैं। वे वास्तव में सामान्य से और विशेष से आकारमात्रक (अर्थविकल्पात्मक ) नहीं हैं।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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