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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
(१) श्रद्धा-रुचि प्रतीति-चरण सूत्र १९७८ में ११९१ तक ( २ ) प्रशम-संवेग-निर्वेद- अनुकम्पा - आस्तिक्य सूत्र १९९२ से १२३५ तक ( ३ ) भक्ति वात्सल्यता - निन्दन गर्हण सूत्र १२३६ से १२४४ तक। ( ४ ) निशंकित अंग आदि प्रसिद्ध आठ अंग सूत्र १२४५ से १५८६ तक। यह ध्यान रहे कि ये सब लक्षण सम्यक्त्व के अनात्मभूत लक्षण हैं। क्योंकि यह श्रद्धा गुण का परिणमन नहीं है किन्तु बुद्धिपूर्वक ज्ञान और चारित्र का परिणमन है और सब विकल्पात्मक (रागवाला) परिणमन है।
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श्रद्धानादिगुणा बाह्यं लक्ष्म सम्यग्दगात्मनः ।
न सम्यक्त्वं तदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्ययाः ॥ ११५४ ॥
सूत्रार्थ श्रद्धान आदि गुण सम्यग्दृष्टि आत्मा के बाह्य लक्षण (अनात्मभूत लक्षण हैं ) । वे ( श्रद्धान आदि ) ही सम्यक्त्व नहीं है क्योंकि वे ज्ञान ( और चारित्र ) गुण की पर्यायें हैं ।
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भावार्थ जिस समय पूर्व निरूपित शुद्ध सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसी समय ज्ञान और चारित्र गुण का परिणमन अविनाभाव संबंध से जाता है। जाग जाता है और स्वात्मानुभूति (ज्ञान चेतना) का धारी हो जाता है तथा चारित्र गुण में अनन्तानुबंधी कषायों का अभाव होने से प्रशम, संवेग, अनुकम्पा आदि उत्पन्न हो जाते हैं। क्योंकि आत्मा अखण्ड है और ज्ञान और चारित्र गुण भी उसी आत्मा के हैं। उनका ऐसा परिणमन सम्यक्त्व से अविनाभावी है। अतः उनको भी सहचारिता के कारण सम्यक्त्व के लक्षण कहने में कोई दोष नहीं है। अब पहले ज्ञान refer को सम्यक्त्व का लक्षण कहते हैं -
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दूसरा अवान्तर अधिकार
सम्यक्त्व का लक्षण "स्वात्मानुभूति" सूत्र ११५५ से ११७७ तक २३ अपि स्वास्मानुभूतिश्च ज्ञानं ज्ञानस्य पर्ययात् ।
अर्थात् ज्ञानं न सम्यक्त्वमस्ति चेद्वाह्यलक्षणम् ॥ ११५५1
सूत्रार्थं और स्वात्मानुभूति भी ज्ञान रूप है क्योंकि ज्ञान की पर्याय है। वास्तव में (वह (स्वात्मानुभूति रूप ) ज्ञान सम्यक्त्व नहीं है; यदि है तो बाह्य लक्षण है (अनात्मभूत लक्षण है ) अर्थात् शुद्ध स्वात्मानुभूति पर्याय तो ज्ञान की है पर सहचरता के कारण उसे सम्यक्त्व का लक्षण कह देते हैं।
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यथोल्लाघो हि दुर्लक्ष्यो लक्ष्यते स्थूललक्षणैः ।
वाङ्मन: कायचेष्टानामुत्साहादिगुणात्मकैः ॥ ११५६ ॥
सूत्रार्थं जैसे स्वस्थपना वास्तव में कठिनता से जानने योग्य है पर वचन मन काया की क्रियाओं के उत्साहादिगुण
रूप स्थूल लक्षणों द्वारा जाना जाता है। उसी प्रकार शुद्ध सम्यक्त्व सूक्ष्म और निर्विकल्प है। कठिनता से जानने योग्य है। केवल श्रद्धानादि वा शुद्ध आत्मानुभूति रूप बाह्य लक्षणों द्वारा जाना जाता है।
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भावार्थ जैसे बहुत समय से कोई रोगी हो, दुःखी हो । भवितव्यता वश उसका दुःख दूर हो जाय और वह निरोगीस्वस्थ हो जाय तो उस स्वस्थता का उसे अनुभव तो है पर वह स्वस्थता सीधी शब्दों में नहीं कही जा सकती है। उसके मन, वचन, काया की क्रियाओं में उस स्वस्थता के कारण जो उत्साह आ जाता है उससे वह प्रगट हो जाती है। उसी प्रकार जीव अनादिकाल से मिध्यात्व रूपी रोग से ग्रसित है। जिस समय सम्यक्त्व रूप निर्मलता उस आत्मा में प्रगट होती है, उस समय उसमें शुद्धात्मानुभव प्रारम्भ हो जाता है। देव, शास्त्र, गुरु, तत्त्व की श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। कषायें प्रशमता को धारण कर लेती हैं। ज्ञान का झुकाव पर की ओर से स्व की ओर हो जाता है। इनसे सम्यक्त्व का अस्तित्व पता चल जाता है।
शङ्का
नन्वात्मानुभवः साक्षात् सम्यक्त्वं वस्तुतः स्वयम् I
सर्वतः सर्वकालेऽस्य मिथ्यादृष्टेरसंभवात् ॥ ११५७ ॥1
सूत्रार्थ - आत्मानुभव स्वयं वस्तुपने से साक्षात् सम्यक्त्व है क्योंकि इस ( आत्मानुभव) की मिथ्यादृष्टि के सब प्रकार से किसी काल में भी संभवता नहीं है।