________________
द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
४३
सार सूत्र १९४३ से ११५३ तक का सामान्य मा अनल गुन सा है। उसमें एक मक्त्व गुण है। सम्यग्दर्शन उसकी पर्याय है। यह गुण मान्य में भी निर्विकल्प है और विशेष में भी निर्विकल्प है। इस गुण की सम्यग्दर्शन पर्याय सीधी तो केवलज्ञान,मनः पर्ययज्ञान और परमावधि सर्वावधि का विषय है। मति, श्रुत ज्ञान का वह पर्याय विषय नहीं है तो भी सम्यग्दर्शन के अविनाभावी गुणों"स्वात्मानुभूति श्रद्धा आदि जिनका निरूपण आगे करेंगे" के लक्षणों द्वारा उसीका यथार्थ निश्चय लक्ष्यलक्षण भेद द्वारा किया जा सकता है। जो ऐसा न होय तो किसी के भी इस सम्बन्धी संशय आदि दोष टले नहीं। वह सम्यग्दर्शन क्या वस्तु है ? इसके उत्तर में ग्रंथकार कहते हैं कि सामान्य मात्र होने के कारण उसको वास्तविक रूप से तो शब्दों में नहीं कहा जा सकता पर इतना समझना पर्याप्त है कि मिथ्यात्व आत्मा में एक कलुषता है और सम्यक्त्व एक निर्मलता है। प्रसन्नता है। जिसका अस्तित्व उसके अविनाभावी लक्षणों से प्रगट हो जाता है। जैसे मेघों के जाने पर दिशाएं निर्मल होती हैं, रोग के जाने पर रोगी प्रसन्न होता है। मद्यादि का नशा चले जाने पर जीव होश में आ जाता है उसी प्रकार मिथ्यात्व रूप रोग के आने पर आत्मा में से मोह सम्बन्धी कलुषता निकल कर सम्यक्त्व रूप शुद्धता प्रगट हो जाती है। इस शुद्धता का अनुभव प्रसन्नता रूप है। अतीन्द्रिय सुख रूप है। यह शुद्धता प्रगट होते ही आत्मा में स्वतः द्रव्य और भावकों का नाश प्रारम्भ हो जाता है और आत्मा का गमन जो अनादि से संसार की ओर था मुड़कर मोक्ष की ओर चल देता है जैसे पानी अपना रुख पलट लेता है। आत्मा में एक दर्शनमोहकर्म अनादि से,सम्बन्ध रूप है। उसका स्वतः अपने कारण से उदय है। जब जीव सामान्य के आश्रयरूप पुरुषार्थ द्वारा सम्यक्त्व पर्याय प्रगट करता है यह कर्म बिना जीव के कुछ किये स्वतः अपनी योग्यता से अनुदय रूप हो जाता है। ऐसा ही कुछ इस कर्म का और सम्यक्च का स्वतः अविनाभाव सम्बन्ध या समव्याप्ति है। यह तो सम्यक्त्व गुण का वास्तविक निरूपण है। अब आगे यह बतलाते हैं कि जिस समय यह सम्यक्त्व प्रगट होता है उस समय अविनाभावी ज्ञान-चारित्र आदि अन्य गुणों की कैसी अवस्था होती है जिससे सम्यक्त्व का अस्तित्व प्रगट झलकता है।
शुद्ध सम्यक्त्व का निरूपण समाप्त हुआ।
विषय परिचय सूत्र ११५४ से १५८६ तक का अब सम्यक्त्व के अनात्मभूत लक्षणों का निरूपण करते हैं उनमें सबसे पहले खास लक्षण शुद्धात्मानुभूति है। यह सम्यक्त्व का आत्मभूत लक्षण तो यूं नहीं कि सम्यक्त्व श्रद्धागुण की पर्याय है और शुद्धात्मानुभूति-ज्ञान गुण की पर्याय है। अनात्मभूत लक्षण इसलिये है कि इस शुद्धात्मानुभूति का सम्यक्त्व से अविनाभाव है। समव्याप्ति रूप संबंध है। इसलिये शद्धात्मानुभूति को सम्यक्त्व का लक्षण भी कह देते हैं। अब यह समझने की आवश्यकता है कि वह शुद्धात्मानुभूति क्या है और कितने प्रकार की है :
(१)ऐसा कुछ वस्तु स्वभाव का नियम कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के समय मतिश्रुतज्ञानवरण कर्म का विशिष्ट क्षयोपशम हो जाता है जोक्षयोपशम आत्माका अनुभव करने में कारण है। इस क्षयोपशम कोलब्धि रूपशद्धात्मानुभूति कहते हैं। इसकी सम्यक्त्व से समव्याप्ति है अर्थात् जब तक सम्यक्त्व रहेगा तब तक यह अवश्य रहेगी और सम्यक्त्व नष्ट होते ही उसके साथ यह भी नाश हो जायेगी।
(२) दूसरी शुद्धात्मानुभूति साक्षात् अनुभव रूप होती है। जब ज्ञानी अपने उपयोग को सब परज्ञेयों से हटाकर केवल अपने आत्मा का अनुभव किया करते हैं। उस समय यह होती है। यह क्षणिक है पर होती सम्यग्दृष्टि को ही है। अतः इसको भी सम्यक्त्व का लक्षण कह देते हैं। वह निरूपण सूत्र ११५५ से १९७७ तक किया गया है।
(३) इससे आगे निम्नलिखित लक्षणों में यह बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि के ज्ञान और चारित्र का बुद्धिपूर्वक कैसा-कैसा परिणमन हुआ करता है। ये सब अविनाभावी चिन्ह हैं। इसमें एक और खास विवेक की आवश्यकता है कि यह चिन्ह तो मिथ्यादृष्टि में भी प्रगट हो जाते हैं जिनके बल पर वह नवमें ग्रीवक पर्यन्त गमन करता है पर उस में यह आभास रूप होते हैं। nitation नकली। किन्तु स्वात्मानुभूति ज्ञान की पर्याय होते हुए भी वह एक ही ऐसा लक्षण है कि सम्यग्दृष्टि के ही होता है मिथ्यादृष्टि के कभी कहीं भी नहीं होता। अतः ग्रन्थकार को यह लिखना पड़ा कि यदि यह लक्षण शुद्ध स्वात्मानुभूति के सहचर हैं तो सम्यक्त्व के लक्षण है अन्यथा नहीं। ऐसी परीक्षा अवश्य कर लेनी चाहिये। वे लक्षण ये हैं और इस प्रकार से उनका निरूपण हैं