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________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक ३४७ कर्मफल चेतनारूप से अनुभवता है किन्तु ज्ञानी का ज्ञान तो बराबर भेदविज्ञान द्वारा भिन्न-भिन्न ही जानता है और भिन्न-भिन्न ही अनुभव भी करता है। इसलिये स्वात्मानुभूति भिन्न है सम्यक्व भिन्न है। सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्भमस्ति वाचामगोचरम् । तस्माद् ववतु च श्रोतुं च जाधिकारी विधिकमात् ॥ ११६८ ॥ सूत्रार्थ - सम्यक्त्व वस्तु रूप से सूक्ष्म है; वचनों के अगोचर है। इसलिये विधिपूर्वक कहने के लिये और सुनने के लिये ( कोई भी) अधिकारी नहीं है। (यह सम्यक्त्व की सीधी आत्मभूत पर्याय की अपेक्षा कथन है)। खास सूत्र प्रसिद्ध ज्ञानमेवैकं साधनादिविधौ चितः । स्वानुभूत्येकहेतुश्च सरासत परमं पदम् ॥११६९।। सूत्रार्थ - आत्मा की साधनादि विधि में ज्ञान ही एक प्रसिद्ध( साधन ) हैं और (ज्ञान ही) स्वानुभूति का एक कारण है। इसलिये वह परम पद है। भावार्थ - अन्य गुणों में पुरुषार्थ नहीं होता वेगण तो केवल जेय रूप है। ज्ञान द्वारा ही जीव अनादिका पर को एकरूप जानकर, उसमें अपने ज्ञान को रागी-द्वेषी-मोही बनाकर, ज्ञान को बंध का साधन बनाकर, संसार में भटक रहा है और ज्ञान द्वारा ही जीव स्व पर का भेद विज्ञान करके, ज्ञान को पर से मोड़कर, अपने सामान्य तत्त्व में जोड़ कर ज्ञानी बनता है और फलस्वरूप सम्यग्दर्शन की पर्याय स्वतः प्रगट हो जाती है। ज्ञान द्वारा ही अतीन्द्रिय सुख का भोग करता है और ज्ञान का मात्र शुद्ध ज्ञान रूप रह जाना ही मोक्ष है। सर्वतात्पर्य यह है कि ज्ञान ही सर्वोत्कृष्ट वस्तु है। श्रीसमयसार में तो आत्मा को ज्ञान शब्द से ही वाच्य बनाया है और आत्मानुभूति को ही सम्यक्त्व कहा है। तनाप्यात्मानुभूतिः सा विशिष्ट ज्ञानमात्मनः । सम्यक्वेनातिनाभूतमन्वयाद् व्यतिरेकतः || ११७०॥ सूत्रार्थ - उसमें भी जो आत्मानुभूति है वह आत्मा का विशिष्ट ज्ञान है। वह (स्वात्मानुभूति रूप विशेष ज्ञान ) सम्यक्त्व से अन्वय से और व्यतिरेक से अवनाभावी है। भावार्थ - प्रकरण आत्मानुभूति का चल रहा है। शिष्य आत्मानुभूति को श्रद्धा-गुण की सम्यग्दर्शन पर्याय मान कर सम्यक्त्व का आत्मभूत लक्षण कहता है और श्रीअमृतचन्द्र गुरुदेव उसे ज्ञान की पर्याय बतला कर सम्यक्च से अविनाभाव होने के कारण उसे सहचर अर्थात् सम्यक्त्व का अनात्मभूत लक्षण कह रहे हैं। उसे समझाते हैं कि यह आत्मानुभूति, इस ज्ञान गुण की सम्यक्त्व होने पर विशेष अवस्था हो जाती है। ज्ञान की उस विशेष अवस्था का नाम आत्मानुभूति है। अत: वह स्वयं सम्यक्त्व नहीं है, हो उसकी सम्यक्त्व के साथ दोनों ओर से व्याप्ति जरूर है। जहाँजहाँ सम्यक्त्व है वहाँ-वहाँ आत्मानुभूति है और जहाँ-जहाँ आत्मानुभूति है वहाँ-वहाँ सम्यक्त्व है तथा जहाँ-जहाँ सम्यकच नहीं है वहाँ-वहाँ आत्मानुभूति भी नहीं है। तथा जहाँ-जहाँ आत्मानुभूति नहीं है। वहाँ-वहाँ सम्यक्त्व भी नहीं है। इस अन्वय व्यतिरेक अविनाभाव के कारण उसे सम्यक्त्व का लक्षण आगम में तथा लोकव्यवहार में कहने की पद्धति है पर भाई इसमें इतना विवेक अवश्य रहना चाहिये कि यह अनात्यभूत लक्षण है। आत्मभूत नहीं फिर भी इसी के द्वारा तो मति, श्रुत और देशावधि वाले अपने सम्यक्त्व का निश्चय करते हैं। सतोऽस्ति योग्यता चवतुं व्याप्ते: सावतस्तयोः । सम्यक्त्वं स्वानुभूतिः स्यात् सा चेच्छुडनयात्मिका || ११७१ ॥ सूत्रार्थ - इसलिये उन दोनों में ( सम्यक्त्व और स्वात्मानुभूति में) व्याप्ति का सद्भाव होने से आत्मानुभूति को भी सम्यक्त्व कहा जा सकता है वह भी तब जबकि वह स्वात्मानुभूति शुद्धनयात्मक हो अर्थात् शुद्धात्मानुभूति हो (ज्ञान चेतना रूप हो। अज्ञान चेतना रूप न हो)। भावार्धं - (१) आचार्य शिष्य की शङ्का का उत्तर देते हुए समझाते हैं कि क्योंकि आत्मानुभूति और सम्यक्त्व का अविनाभाव संबंध है इस अपेक्षा उसे सम्यक्त्व का लक्षणकहा जा सकता है पर यह बात भी ज्ञान में रहनी चाहिये कि वह वास्तव में सम्यक्त्व रूप नहीं क्योंकि श्रद्धा गुण की पर्याय नहीं है किन्तु ज्ञान की पर्याय है (२) दूसरी बात
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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