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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
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उपदेश करने वाला आचार्यादिकका लाभ है। प्रायोग्य लब्धि में उपादान कारण-कर्म की स्थिति अन्त: कोटा-कोटि काल मात्र रहने योग्य आत्मा के परिणामों की प्राप्ति है तथा निमित्त कारण द्रव्य,कर्म की उस प्रकार की स्थिति होनी वह है। अन्तिम करण लब्धि में उपादान कारण आत्मा में सम्यक्त्व प्राप्ति योग्य परिणामों की विशद्धि होनी वह तथा निमित्त कारण द्रव्य कर्मों की उस समय की बैसी योजना होनी वा सालयिक निधर केझन ज्ञान गम्य है। उसको मति, श्रुत ज्ञानद्वारा प्रत्यक्ष जाना नहीं जा सकता। उपादान और निमिस दोनों आगम में बताने में आते हैं उसका कारण यह है कि "जगत में इस कथन के विरुद्ध अनेक अभिप्राय चलते हैं वे यथार्थ नहीं हैं ऐसा ज्ञान होने के साथसाथ सच्चे उपादान और निमित्तों का सच्चा ज्ञान शिष्य को हो जाता है कारण कि उपादान-निमित्त कारण के ज्ञान में जो विपरीतता हो तो सम्यग्दर्शन होता नहीं।"
(७)"दैवात्" शब्द इस सूत्र के अतिरिक्त अन्य कई सूत्रों में भी प्रयोग किया है। उसका आशय यह है कि - आत्मा की उस समय की द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप योग्यता और निमित्तपने द्रव्य कर्म की भी उस समय द्रव्य, क्षेत्र,
ल, भाव रूप योग्यता समझनी। श्रीइष्टोपदेश के सत्र-सत्र में यह नियम दर्शाया है कि आत्मा की जिस समय जैसी योग्यता होती है उसका आरोप कर्म ऊपर उस समय आता है। उपादान और निमित्त इन दोनों कारणों को जानने के लिये यह शब्द डाला जाता है पर "कर्म कुछ भी जीव को लाभ-हानि करता है" यह बताने के लिये यह शब्द डालने में नहीं आया है कारण कि एक द्रव्य की पर्याय दूसरे द्रव्य के आधीन नहीं है। अज्ञानी आत्मा प्रकृति के स्वभाव को छोड़ता नहीं, भेदज्ञान के अभाव के कारण कर्म प्रकति के उदय को अपना समझ कर वह परिणपता है, इस प्रकार अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि ) प्रकृतिस्वभाव में लीन (रक्त) होकर उसके फल का भोक्ता होता है इतना बताने के लिये अज्ञानी सम्बन्धी "दैवात्"शब्द डाला जाता है, तथा भेद ज्ञान के बल से ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) आत्मा क है उस समय कर्म की अवस्था कैसी होती है यह बताने के लिये ज्ञानी सम्बन्धी भी "देवात्"शब्द डाला जाता है। तथा
(८) संजीपना प्राप्त करने के बाद ऐसे भाव जीव किसी वक्त ही करता है ऐसी दुर्लभता और अपूर्वता दर्शाने के लिये भी यह शब्द यहाँ डाला है।
(९) भव्यभावविपाकात्' भव्यत्व भाव की पर्याय अशुद्ध थी। उसको टालकर अपने पुरुषार्थ से जीव शुद्ध पर्याय प्रगट करता है वह ही भव्यत्व भाव का विपाक होता है ऐसा यहाँ बताया है।
(१०) भवार्णवे प्रत्यासने'ऊपर प्रमाण पुरुषार्थ करके जीव अपने में शुद्ध पर्याय प्रगट करता है तब संसार सागर को पार पाने योग्य वह जीव हो जाता है और वह आसन्न भव्य भी कहलाता है, पर विकार टालने के लिये जीव पुरुषार्थ करे नहीं तो पाँचों लब्धियाँ, भवार्णव के अंत की निकटता कि भव्यभाव विपाकता को वह पा सकता नहीं ऐसा समझना।
(११) श्री शीलपाहुड़की ३७वीं गाथा में कहा है कि - ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शन की शुद्धता वीर्य (पुरुषार्थ) के आधीन है। पहली बार लब्धियाँ तो भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव पा सकते हैं पर पाँचवीं करणलब्धि तो योग्य पुरुषार्थ द्वारा भव्य संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही पा सकते हैं।
(१२) ये पाँचों लब्धियाँ क्षयोपशमिक भाव रूप हैं और उपशम सम्यक्त्व औपशमिक भाव है। इसलिये पाँचों लब्धियाँ उपशम सम्यक्त्व को निमित्त हैं। इसका अर्थ यह है कि जब जीव उपादान में सम्यक्त्व प्राप्त करता है तो शेष गुणों की अपने कारण से ऐसी अवस्था होती है।
(१३) पूर्व सूत्र ९५७ में दर्शाये अनुसार नौ तत्त्वों में रहने वाला एक सामान्य चैतन्य स्वरूप आत्मा कि जो भूतार्थ नय का विषय है उसका आश्रयभाव वह उपादान कारण है और वह साधक जीव के ज्ञान गम्य है। इसलिये भूतार्थनय के आश्रय करने का पुरुषार्थ करना वह साधक का कर्तव्य है।
(१४) जिस काल में कार्य होता है उस काल को भी काललब्धि कहने में आता है और वह काल, आत्मा की स्वकाल लब्धिका निमित्त मात्र है तथा आत्मसन्मुख परिणाम होते समय कर्म की स्थिति स्वयं घट जानी वह कर्म की काललब्धि है और उसको आत्मसन्मुख परिणाम निमित्त मात्र है।