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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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अनादि का स्वतः सिद्ध है। वह कर्म भी अनादि का स्वतः सिद्ध है। उनका निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी अनादि का स्वतः सिद्ध है। अत: उस गुण का विपरीत परिणमन भी अनादि से हो रहा है और जीव को मिथ्या श्रद्धारूप से उसका स्वादआरहा है। अब वेधारा यह है कि वह दिलवपर्याय पलट कर सम्यग्दर्शन रूप कैसे अनुभव में आवे तो उसके कारण का निर्देश दो प्रकार से होता है एक अध्यात्म भाषा से - एक आगम भाषा से। अध्यात्म भाषा से तो उसकी प्राप्ति का उपाय भेद विज्ञान द्वारा अपने सामान्य स्वभाव को जानकर उसका आश्रय करना है जो पहले सूत्र ६५७ में निरूपण कर आये हैं तथा श्री समयसार गा, १३ में निरूपित है। आगम भाषा से उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है। यह अब दिखाते हैं। अध्यात्म का उपाय उपादान ही मुख्यता से है। आगम का कथन निमित्त की मुख्यता से है। समय दोनों का एक है। जीव तो केवल उपादान का पुरुषार्थ करता है। ये बातें जो अब कहेंगे स्वतः वस्तु स्वभाव के अनुसार अपने आप आ मिलती हैं। कुछ इन्हें बुद्धिपूर्वक नहीं मिलाना पड़ता। बुद्धिपूर्वक तो केवल भेदविज्ञान का पुरुषार्थ करके सामान्य का आश्रय किया जाता है। अब आगम भाषा से सम्यक्त्व की प्राप्ति का उपाय बतलाते हैं। यह उपाय केवल ज्ञान गम्य है ऐसा पं. टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्ग प्रकाशक में स्पष्ट लिखा है।
आगम भाषा में सम्यकच की प्राप्ति का उपाय दैवात्कालादिसंलब्धो प्रत्यासज्ले अवार्णवे ।
भव्यभावविपाकाद्वा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ।।११४६॥ सूत्रार्थ - दैवयोग से, काल-आदि लब्धियों की प्राप्ति होने पर, संसार सागर के निकट आने पर, अथवा भव्य भाव के विपाक से, जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
भावार्थ -(१) सम्यग्दर्शन की प्राप्ति किस प्रकार होती है उसका कथन दो प्रकार से करने में आता है। अध्यात्म भाषा द्वारा तथा आगम भाषा द्वारा। अध्यात्म भाषा द्वारा उसका कथन पहले सूत्र ६५७ में आ गया है वहाँ कहा है कि "नवतस्वों का भूतार्थनय द्वारा आश्रय करते सम्यग्दर्शन प्रगटता है।"जब सम्यग्दर्शन प्रगटता है उस समय आत्मा की अपनी दशा कैसी होती है यह और कर्म की अवस्था कैसी होती है यह इस सूत्र में दान में आया है। यहाँ उपादान और निमित्त दोनों कारण जानने में आये हैं। इसमें कही हुई लब्धियाँ केवलज्ञान गभ्य है।।
(२) श्रीपंचास्तिकाय की गाथा १५०-१५१ की संस्कृत टीका में श्रीजयसेन आचार्य ने कहा है कि- जब जीव, आगम भाषा से कालादिलब्धिरूप तथा अध्यात्म भाषा से शुद्धात्माभिसुख परिणामरूप स्वसंवेदन ज्ञान पाता है उस समय पहले मिथ्यात्वादि प्रकृति का स्वयं उपशम होकर सम्यग्दृष्टि होता है।
(३) श्री नियमसार की गाथा ४१ की संस्कृत टीका में "काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यता - ऐसी पाँचलब्धि"ये शब्द डाले हैं उसका हिन्दी अर्थ ब.शीतलप्रसादजी ने इस प्रकार किया है"काललब्धिको क्षयोपशम लब्धि भी कहते हैं, दूसरी उपशम अर्थात् विशुद्धिलब्धि, तीसरी उपदेश अर्थात् देशनालब्धि, चौथी प्रायोग्यलब्धि और पाँचवी करणलब्धि" इस प्रकार पाँच लब्धि वहाँ कही है।
(४) श्री मोक्षपाहुड़ की गा.२४ के पीछे के आधे भाग में कहा है कि "कालादिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति"। उसका अर्थ वहाँ इस प्रकार किया है "कालादिलब्धि जो द्रव्य-क्षेत्र-काल--भाव रूप सामग्री की प्राप्ति उस द्वारा यह आत्मा कि जो कर्मसंयोग में स्वयं अशुद्ध है वही परमात्मा होता है।
(५)श्रीसमयसार गाथा ७१ की श्री जयसेन टीका में धर्म प्राप्ति के अवसर को धर्मकाललब्धि कहते हैं। इसलिये आत्मा की अपनी काललब्धि शब्द का अर्थ आत्मा की अपनी उस समय की पर्याय की प्राप्ति अर्थात "स्वकाललब्धि' होता है।
(६) श्री गोमटसार जीवकाण्ड गाथा ६५०-६५१ में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पाँच लब्धियों कही हैं । उसमें आत्मा के उपादान कारण और उसके साथ रहने वाले निमित्त भी आ जाते हैं। क्षयोपशम लब्धि में क्षयोपशम भाव वह उपादान और उसके योग्य कर्म का क्षयोपशम वह निमित्त, विशुद्धता में उपादान कारण संक्लेश की हानि तथा विशुद्धि की वृद्धि है और निमित्त कारण अशुभ कर्म का अनुभाग घटना वह है। देशनालब्धि में - उपदेशित नौ पदार्थों आदि की धारणा की प्राप्ति होना वह उपादान कारण है और वहाँ निमित्त कारण नौ पदार्थों का