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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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(१५) देशना लब्धियह बताती है कि - मिथ्यादृष्टि का उपदेश कि शास्त्र वाचन जीव को प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिये निमित्तपने की योग्यता भी धरावता नहीं है इसलिये वैसे संयोगवाले जीव उस समय सम्यग्दर्शन प्रगट करने कीयोग्यता वाले नहीं है और जिन जीवों कोनिसर्गज सम्यग्दर्शन होता है उनकी देशनालब्धिका संस्कार वर्तमान में निमित्त है।
(१६)श्री समयसार गाथा २७६-२०१७की श्री जयसेन आचार्यकत टीका पुष्ठ ३७० में कहा है कि "जो तादश (जैसी है वैसी ) आत्मा को उपादेयरूप श्रद्धान करता है उसके सात प्रकृतियों का उपशमादिक है तथा वह भव्य है पर जिसके निज शुद्ध आत्मा उपादेय रूप नहीं है उसके सात प्रकृतियों का उपशमादिक नहीं है ऐसा समझना।"
__प्रयत्जमन्तरेणापि दृड्मोहोपशमो भवेत् ।
अन्तर्मुहूर्तमानं च गुणश्रेण्यनतिकमात् ॥ ११४७॥ - और गणश्रेणीको अतिक्रम न करके ( अर्थात गणश्रेणी निर्जरा के अनसार) केवल अन्तर्महर्त में प्रयत्न के बिना ही दर्शनमोह का उपशम होता है (परद्रव्य की पर्याय में जीव का पुरुषार्थ नहीं हुआ करता। वह स्वयं अपनी योग्यता से होती है।
भावार्थ - पहले सूत्र ९५७ में बतलाये हुए मार्गानुसार जब जीव भेदविज्ञान करके अपने सामान्य के आश्रय करने का पुरुषार्थ करता है तो दर्शनमोह कर्म जो सत्ता में पड़ा है उसकी सिद्धान्तानुसार गुणश्रेणी निर्जरा होते-होते अन्तर्मुहूर्त में उसका उपशम हो जाता है। इधर जीव अपने उपादान में सम्यक्त्व प्राप्ति का पुरुषार्थ करता है उधर कर्म स्वयं उपशम अवस्था धारण करता है। कर्ता कोई किसी का नहीं है। दोनों निरपेक्ष स्वतन्त्र अपना-अपना कार्य करते हैं पर अनादि अनन्त वस्तु का स्वतः ऐसा मेल है कि दोनों कार्य एक समय में निरपेक्ष होते हैं तथा -
अरन्युपशमसम्यक्त्वं दृमोहोपशमाद्यथा ।
{सोऽतरस्थान्तराकार नाकारं चिद्विकल्पके ॥ ११५८ ।। सूत्रार्थ - उपशम सम्यक्त्व दर्शनमोह के उपशम से पुरुष की मिथ्यात्व से दूसरे प्रकार की अवस्था रूप है और वह चिद्विकल्प में आकार नहीं है (ज्ञानवत् साकार नहीं है, निराकार है)।
भावार्थ - उपशम सम्यक्त्व नैमित्तिक पर्याय है और नैमित्तिक पर्याय का कथन निमित्त की ओर से हुआ करता है पर उसका यह अर्थ न समझ लेना कि उसने की है। उत्पन्न तो जीव ने अपने पुरुषार्थ से की है। एक द्रव्य की पर्याय दूसरा नहीं किया करता । वह सम्यग्दर्शन रूप पर्याय क्या है तो बतलाते हैं कि यह जो अनादिकालीन मिथ्यात्व पर्याय है कि जिसका अनुभव सब जगत् को है वह इससे बिल्कुल दूसरे प्रकार की अवस्था है। अब उस अवस्था का निरूपण करते हुये बतलाते हैं कि वह पर्याय निराकार है। आत्मा के अनन्त गुणों में मात्र एक ज्ञान गुण की पर्याय साकार है। शेष सब गुणों की निराकार है। स्व पर के आकार रूप होने को अर्थात् ज्ञेयाकार को सविकल्प पर्याय कहते हैं। सो यह बात उस सम्यग्दर्शन पर्याय में नहीं है। वह केवल निर्विकल्प अर्थात् राग रहित-भेद रहित-आकार रहित मात्र शुद्ध संवेदन रूप है। ज्ञान गुण की अवस्था को सम्यकव नहीं कहते परन्तु सम्यक्त्व तो एक भिन्न निर्विकल्प गुण है और उपशम, सम्यक्त्व उसकी पर्याय है।
सामान्यादा विशेषादा सम्यक्त निर्विकल्पकम ।
सत्तारूपं परिणामि प्रदेशेषु पर चितः || ११४९॥ सूत्रार्थ - सामान्य से भी और विशेष से भी ( गुण में भी और पर्याय में भी ) सम्यक्त्व निर्विकल्पक है, सत्तारूप है, केवल आत्मा के प्रदेशों में परिणमन रूप है। ____भावार्थ - ज्ञान गुण सामान्य में निर्विकल्प है क्योंकि उसका स्वरूप शुद्ध ज्ञान है जैसा श्री द्रव्यसंग्रह की गाथा ६ में कहा है और विशेष में (पर्याय में ज्ञान, गुण सविकल्प है-ज्ञेयाकार है क्योंकि जानने का कार्य पर्याय में होता है। गुण में नहीं। गुण तो शक्ति रूप त्रिकाल एक जैसा है। अब सम्यक्त्व के बारे में बताते हैं कि वह सामान्य में भी अर्थात् गुण में भी निर्विकल्प है और विशेष में भी अर्थात् पर्याय में भी निर्विकल्प है। अब निर्विकल्प कहने से कोई यह समझे कि वह कुछ है ही नहीं तो कहते हैं कि निर्विकल्प होने से उसका विवेचन कठिन है पर वह है सत्तारूप