SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी द्वितीय खण्ड/पञ्चम पुस्तक अध्यात्मचन्द्रिका टीका सहित सम्यग्दर्शन का निरूपण (सूत्र १९४३ से १५८८) विषय अनुसंधान पहली तीन पुस्तकों में सामान्य वस्तु का निरूपण किया। चौथी पुस्तक में विशेष वस्तु का निरूपण किया।विशेष वस्तु में भी जीव वस्तु का पर्याय दृष्टि से निरूपण प्रारम्भ किया। उसमें बतलाया कि सम्पूर्ण जगत् के जीव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दो प्रकार के हैं। अत: उन दोनों का निरूपण करने से जीव तत्त्व का निरूपण हो जाता है। जिसमें कर्मचेतना और कर्मफल चेतनाकाकर्ता-भोक्ता तो सारा जगत् प्रत्यक्ष मिथ्यादृष्टि है ही उसको क्या दिखलायें। उसका तो सबको प्रत्यक्ष अनुभव है ही। सम्यग्दृष्टि का निरूपण करते आ रहे हैं। सम्यग्दृष्टि कैसा होता है यह चौथी पुस्तक में बतलाया। वह सम्यग्दृष्टि ज्ञानचेतना का धारी होता है। सामान्य का वेदन करने वाला होता है। कर्मचेतना और कर्मफल चेतना का ज्ञाता दृष्टा होता है। इन्द्रिय सुख, इन्द्रिय ज्ञान, कर्म फल से विरक्त होता है और अतीन्द्रिय ज्ञान तथा अतीन्द्रिय सुख का अभिलाषी होता है। पर से अत्यन्त उदासीन, स्वानुभव प्रत्यक्ष ज्ञान और वैराग्य शक्ति काधारक होता है। अब उस सम्यग्दृष्टि में इतनी विलक्षणता उत्पन्न करने वाला जोसम्यग्दर्शन है उसका निरूपण इस सारी पांचवीं पुस्तक में करेंगे। यह विवेचन विशेष वस्तु विवेचन के अन्तर्गत ही है और जीव तत्व के निरूपण में ही गर्भित है सो जानना। सबसे पहले परम पूज्य जो श्रद्धा गुण की सम्यग्दर्शन रूप सूक्ष्म पर्याय है उसका सीधा"आत्मभूत"लक्षण सूत्र ११४३ से ११५४ तक निरूपण किया है और फिर सूत्र ११५५ से पुस्तक के अन्त तक सम्यग्दर्शन का 'अनात्मभूत" लक्षण निरूपण किया गया है सो जानना। पहला अवान्तर अधिकार शुद्ध सम्यक्त्व का निरूपण सूत्र ११४३ से ११५३ तक ११ खास सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम् ॥ गोचरं स्वाधिस्वान्तः पर्ययज्ञानयोर्द्वयोः ॥ ११५३ ।। न गोचरं. मलिज्ञानश्रुतज्ञानद्वयोर्मनाक । नापि देशावधेस्तत्र विषयोऽनुपलब्धितः ॥ ११४४॥ सुत्रार्थ- सम्यक्त्व वस्तुपने से सूक्ष्म है।वह केवलज्ञान का विषय है अथवा अपने अवधि ( परमासर्व) और अपने मनःपर्यय इन दो ज्ञानों का भी विषय है किन्तमतिज्ञान और श्रतज्ञान इन दोनों का तो बिल्कल विषय नहीं है। देश अवधि का भी विषय नहीं है क्योंकि इन तीन ज्ञानों में सम्यक्त्व की अनुपलब्धि है अर्थात् उस पर्याय का सीधाजाननपना नहीं है। भावार्थ - जिस प्रकार आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि अनन्त गुण हैं। उसी प्रकार एक सम्यक्त्व गुण भी है। जिसप्रकार ज्ञान गुण की आठ पर्यायें होती हैं, दर्शन गुण की चार पर्यायें होती हैं. चारित्र गुण की सात पर्यायें होती हैं, उसी प्रकार सम्यक्त्व गुण की छः पर्यायें होती है - (१) मिथ्यात्व (२) सासादन (३) मिश्र (४) औपशमिकसम्यग्दर्शन(५)क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन(६)क्षायिक सम्यग्दर्शन।ये छ: पर्यायें तो आगम अर्थात् सिद्धात शास्त्रानुसार हैं। अध्यात्म में तो एक विभाव (विपरीत ) पर्याय मिथ्यादर्शन और एक स्वभाव (सीधी ) पर्याय सम्यग्दर्शन कही जाती है। यहाँ उस सम्यग्दर्शन रूप सीधी पर्याय का निरूपण है। सम्यक्त्व गुण को श्रद्धा गुण भी कहते हैं। यहाँ गुण की चर्चा नहीं है। गुण तो भव्य-अभव्य, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि सभी में समान रूप से पाया जाता तो जिसका सम्यक्च गुण अनादिकालीन मिथ्यात्व पर्याय से बदलकर सम्यक्त्व रूप पर्याय में आ गया है। सीधी उस पर्याय की चर्चा है क्योंकि भोग गण का नहीं होता पर्याय का होता है। मोक्षमार्ग गण रूप नहीं है किन्तु केवलज्ञान के गोचर तो तीनों सम्यक्त्व है ही। परम, सर्व अवधि और मनःपर्यय, दो सम्यक्त्व को तो सीधा जानते ही हैं क्योंकि वे निश्चय से पुदगल पर्याय कही जाती है। क्षायिक सम्यक्त्व को भी ये ज्ञान सीधे जानते हैं या नहीं इसके बारे में जैसी आगम की आज्ञा हो वैसा श्रद्धान करना। उपर्युक्त सूत्र तो सामान्य रूप रचा गया है क्योंकि द्रव्यानुयोग में सामान्य कधन ही होता है। भेद-प्रभेदों का कथन करना सिद्धान्त का कार्य है। सिद्धान्त शास्त्र के हम मास्टर नहीं है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy