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________________ ग्रन्थराज श्रीपञ्चाध्यायी उत्तर - यह आत्मा के दो अनुजीवी गुण हैं। अनादि से घातिकर्मों के निमित्त से इनका विभाव रूप परिणमन हो रहा है।स्वरूप के अवलम्बन के बल द्वारा उनके घातिकर्मों के अभावपूर्वक इनकी स्वभाव पर्याय प्रकट हो जाती है। उसी का नाम अतीन्द्रियज्ञान तथा अतीन्द्रिय सुख है। इसी को अनन्त-चतुष्टय भी कहते हैं क्योंकि अनन्तवीर्य तथा अनन्तदर्शन इसके अविनाभावी हैं। यही वास्तव में आत्मा का पूर्ण स्वरूप है जिस पर उपादेय रूप से सभ्यग्दृष्टि की दृष्टि जमी हुवी है। (१११३ से ११३८ तक) अंतिम मङ्गलाचरण कर्मों का करके नाश सब अर्हन्त इस ही विधान से । यूं ही कर उपदेश भी निवृत्त हुआ नमूं उनको मैं ॥८॥ श्रमणो जिनो तिर्थकरो इस रीत संकर मार्ग को । सिद्धि वर्या, न उनको मैं निर्माण के उस मार्ग को ॥ १९९।। हरिगीत अन्त मङ्गल में गुरुवर जय को मैं सुमरण करू । उनका 'शरणा है सदा उनकी ही कृपा से बनी ॥
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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