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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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उत्तर - अपने को सर्वथा सुख-दुःख रूप ही अनुभव करना । ज्ञायक का रंचमात्र अनुभव न होना कर्मफल चेतना
है। जीव भेदविज्ञान के अभाव के कारण आत्मा के ज़ायक स्वरूप को भूलकर इष्टविषयों में सुख की कल्पना करता है तथा अनिष्ट विषयों में दःख की कल्पना करता है फिर उस कल्पित सुख-दुःख भाव से सर्वथा तन्मय
होकर उसी को संवेदन करता है। उसे आत्मा; मात्र सुख-दुःख जितना ही अनुभव में आता है। (९७५) प्रश्न २२२ - ज्ञानी को साधारण क्रियाओं से बंध क्यों नहीं होता? उत्तर - क्योंकि वह कर्मचेतना और कर्मफलचेतना का स्वामी नहीं है। ज्ञानचेतना का स्वामी है। ज्ञानचेतना के स्वामियों को कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से मिथ्यात्वादि का बन्ध नहीं होता अन्यथा मोक्ष ही न हो।
( १९७ से १०००) प्रश्न २२३ -- ज्ञानी-अज्ञानी की परिभाषा क्या है ? उत्तर - जो अपने को सामान्यरूप संवेदन करे वह ज्ञानी तथा जो अपने को विशेष रूप संवेदन करे वह अज्ञानी। बाकी
परलक्षी ज्ञान के क्षयोपशम या बहिरङ्ग चारित्र से इसका कुछ सम्बध नहीं है। जगत् में एक सम्यग्दृष्टि ही जानी है। शेष सब जगत् अज्ञानी है।
(९८९, ९९०, १९१) प्रश्न २२४ - आत्मा का सामान्य स्वरूप क्या है? उत्तर - ( मद्धस्पृष्ट (२):नन्य नियत (४) अविशेष (५) असंयुक्त (६) शुद्ध (७) ज्ञान की एक
मूर्ति (८) सिद्ध समान आठ गुण सहित (९) मैलरहित शुद्ध स्फटिकवत् (१०) परिग्रहरहित आकाशवत् (११) इन्द्रियों से उपेक्षित अनन्त ज्ञान दर्शन वीर्य की मूर्ति (१२) अनन्त अतीन्द्रिय सुखरूप(१३) अनन्त स्वाभाविक गुणों से अन्वित (युक्त) आत्मा का सामान्य स्वरूप है।
(१००१ से १००५) प्रश्न २२५ - बद्धस्पृष्टादि का कुछ स्वरूप बताओ । उत्तर - (१)आत्मा द्रव्यकर्म , भावकर्म से बद्ध नहीं है तथा नोकर्म से छुवा नहीं है इसको अबद्धस्पष्ट कहते हैं (२)
आत्मा मनुष्य तिर्यञ्चादि नाना विभाव व्यञ्जन पर्यायरूप नहीं है यह अनन्य भाव है (३) आत्मा में ज्ञानादि गुणों के स्वाभाविक अविभाग प्रतिच्छेद की हानिवृद्धि नहीं है यह नियत भाव है ( ४ ) आत्मा में गुणभेद नहीं है यह अविशेष भाव है (५) आत्मा राग से संयुक्त नहीं है यह असंयुक्त भाव है ।(६) आत्मा नौ पदार्थ रूप नहीं है यह शुद्ध भाव है।
(१००१ से १००५) प्रश्न २२६ - इन्द्रियसुख का सैद्धान्तिक स्वरूप बताओ । उत्तर- (१)जो पराधीन है क्योंकि कर्म,इन्द्रिय और विषय के अधीन है (२)बाधा सहित है क्योंकि आकलतामय
है (३) व्यच्छिन्न है क्योंकि असाता के उदय से टूट जाता है (४) बन्ध का कारण है क्योंकि राग का अविनाभावी है (५) अस्थिर है क्योंकि हानि-वृद्धि सहित है (६) दुःखरूप है क्योंकि तृष्णा का बीज है। अतः सम्यग्दृष्टि की इसमें रुचि नहीं होती।
(१०१३) प्रश्न २२७ - इन्द्रियज्ञान में सबसे बड़ा दोष क्या है ? उत्तर - इन्द्रिय ज्ञान में सबसे बड़ा दोष यह है कि वह जिस पदार्थ को जानता है उसमें मोह-राग-द्वेष की कल्पना
करके आकुलित हो जाता है। और आकुलता ही आत्मा के लिये महान् दुःख है। इसको प्रत्यर्थपरिणमन कहते
प्रश्न २२८ – अबुद्धिपूर्वक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर - चारघाति कर्मों के निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध से जो जीव के अनन्त चतुष्टय का घात हो रहा है यह अबुद्धिपूर्वक महान् दुःख है। अनन्त चतुष्टय रूप स्वभाव का अभाव ही इसकी सिद्धि में कारण है।
(१०७६ से १११२) प्रश्न २२१ - अतीन्द्रिय ज्ञान तथा सख की सिद्धि करो।