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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रश्न २१५ – सभ्यग्दृष्टि का स्वरूप बताओ। उत्तर - (१)जो ज्ञान चेतना का स्वामी हो(२) ऐन्द्रिय सुख तथा ऐन्द्रिय ज्ञान में जिसकी हेय बुद्धि हो(३)अतीन्द्रिय
सुख तथा अतीन्द्रियज्ञान में जिसकी उपादेय बुद्धि हो (४) जिसे अपनी आत्मा का प्रत्यक्ष हो गयर हो(५) वस्तु स्वरूप को विशेषतया नौ तत्वों को और उनमें अन्वय रूप से पाये जाने वाले सामान्य का जानने वाला हो(६)भेदविक्षाको प्राप्त झीर किसी कामखासकर सातदिनीय में तथा कर्मों के कार्य में जिसकी उपादेय बुद्धि न हो(८)जिसके वीर्य का झुकावहर समय अपनी ओर हो(१) पर के प्रति अत्यन्त उपेक्षारूप वैराग्य हो(१०)कर्म चेतना और कर्मफल चेतना का ज्ञाता-द्रष्टा हो (११) सामान्य का संवेदन करने वाला हो(१२)विषय सुख में और पर में अत्यन्त अरुचि भाव हो(१३) केवल ( मात्र) ज्ञानमय भावों को उत्पन्न करने वाला हो। ये मोटे-मोटे लक्षण हैं। वास्तव में तो 'एक ज्ञान चेतना' ही स्मयग्दृष्टि का लक्षण है। उस के पेट में यह सब कुछ आ जाता है। हमने अपने परिणामों से मिला कर लिखा है। सन्त जन अपने परिणामों
से मिला कर देखें ( ९६६, १०००, ११३, ११४२)। प्रश्न २१६ - मिथ्यादृष्टि का स्वरूप क्या है ? उत्तर- (१) जो कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना का स्वामी हो(२) ऐन्द्रिय सुख और ऐन्द्रिय ज्ञान में जिसकी उपादेय
बुद्धि हो (३) वस्तु स्वरूप से अज्ञात हो (४) सातावेदनीय के कार्य में जिसकी अत्यन्त रुचि हो (५) हर समय पर के ग्रहण का अत्यन्त अभिलाषी हो(६)अपने को पर्याय जितना ही मानकर उसी का संवेदन करने वाले हो(७) केवल अज्ञानमय भावों का उत्पादक हो। ये मोटे-मोटे लक्षण हैं। वास्तव में तो 'एक अज्ञान
चेतना' ही मिथ्यादृष्टि का लक्षण है। उसके पेट में यह सब कुछ आ जाता है। प्रश्न २१७ – चेतना के पर्यायवाची नाम बताओ । उत्तर -(क) चेतना, उपलब्धि, प्राप्ति संवेदन, संवेतन, अनुभवन, अनुभूति अथवा आत्मोपलब्धि इन शब्दों का एक
अर्थ । चाहे वह संवेदन ज्ञानरूप हो या अज्ञानरूप। ये शब्द सामान्य रूप से दोनों में प्रयोग होते हैं (ख) शुद्ध चेतना ज्ञानचेतना, शुद्धोपलब्धि शुद्धात्मोपलब्धि ये पर्यायवाची हैं। ज्ञानी के ही होती है। (ग) अशुद्धचेतना, अज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना, अशुद्धोपलब्धि ये पर्यायवाची हैं। अज्ञानी के
ही होती है। प्रश्न २१८ - ज्ञान चेतना का क्या स्वरूप है ? उत्तर – ज्ञान चेतना में शुद्ध आत्मा अर्थात् ज्ञानमात्र का स्वाद आता है। यह ज्ञान की सम्यग्ज्ञान रूप अवस्थान्तर है। यह शुद्ध ही होती है। इससे कर्मबंध नहीं होता।
( ९६४,९६५) प्रश्न २१९ - अज्ञानचेतना का स्वरूप बताओ । उत्तर - अपने को सर्वथा राग-द्वेष या सुख-दुःख रूप अनुभव करना अज्ञान चेतना है, जो आत्मा स्वभाव से ज्ञायक
था वह स्वयं वेदक बन कर अज्ञानभाव का संवेदन करता है। इसमें ज्ञान कारंचमात्र संवेदन नहीं है। यह सब जगत् के पायी जाती है। अशुद्ध ही होती है और इससे बन्ध ही होता है।
(९७६) प्रश्न २२० - कर्मचेतना का स्वरूप क्या है? उत्तर - अपने को सर्वथा राग-द्वेष-मोह रूप ही अनुभव करना, ज्ञायक का रंचमात्र अनुभव न होना कर्मचेतना है।
जीव भेद विज्ञान के अभाव के कारण आत्मा के ज्ञायक स्वरूप को भूल कर सर्वथा पर पदार्थ को 3 रूप अथवा अपने को परपदार्थरूप समझता है तो मोहभाव की उत्पत्ति होती है। जिसको इष्ट मानता है उसके प्रति राग की उत्पत्ति होती है, जिसको अनिष्ट मानता है, उसके प्रति द्वेष की उत्पत्ति होती है। फिर सर्वथा राग-द्वेष-मोह का अनुभव करने लगता है। उसे आत्मा, मात्र राग-द्वेष-मोह जितना ही अनभव में आता है।
(९७५) प्रश्न २२१- कर्मफलचेतना का स्वरूप बताओ।