SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक उत्तर - परकृतभाव, परभाव, पराकारभाव, पुद्गलभाव, कर्मजन्यभाव, प्रकृति शीलस्वभाव, परद्रव्य, कर्मकृत, तद्गुणाकारसंक्रान्ति, परगुणाकार, कर्मपदस्थितभाव, जीव में होनेवाला अजीवभाव, जीवसंबंधी अजीव भाव, तद्गुणाकृति, परयोगकृतभाव, निमित्तकृत भाव, विभावभाव, राग, उपरक्ति, उपाधि, उपरंजक, बधभाव, बद्धभाव, बद्धत्व, उपराग, परगुणाकारक्रिया, आगन्तुक भाव, क्षणिकभाव, ऊपरतरताभाव स्वगुणच्युति, स्वस्वरूपच्युति, इत्यादि बहुत नाम है। प्रश्न २०८ - बद्धत्व किसे कहते हैं ? उत्तर - पदार्थ में एक वैभाविकी शक्ति है। वह यदि उपयोगी होवे अर्थात् विभावरूप कार्य करती होवे तो उस पदार्थ की अपने गुण के आकार की अर्थात् असली स्वरूप की जो निमित्त के आकाररूप संक्रान्ति-च्युति-विभाव परिणति है वह संक्रान्ति ही अन्य है निमित्त जिसमें ऐसा बन्ध है अर्थात् द्रव्य का विभाव परिणमन बद्धत्व है जैसे ज्ञान का रागरूप परिणमना बद्धत्व है। पुद्गल का कर्मत्वरूप परिणमना बद्धत्व है अर्थात् परगुणाकार किया बद्धत्व है। (८४०, ८४४,८९८) प्रश्न २०९ - अशुद्धत्व किसे कहते हैं ? उत्तर - अपने गुण से च्युत होना अशुद्धत्व है अर्थात् विभाव के कारण अद्वैत से द्वैत हो जाना अशुद्धत्व है। जैसे ज्ञान का अज्ञान रूप होना । (८८०,८९८) प्रश्न २१० -बद्धत्व और अशद्धत्व में क्या अन्तर है? उत्तर - एक अन्तर तो यह है कि बन्ध कारण है और अशुद्धत्व कार्य है क्योंकि बंध के बिना अशुद्धता नहीं होती अर्थात विभाव परिणमन किये बिना ज्ञान की अज्ञानरूप दशा नहीं होती। ज्ञान का विभाव परिणमन बद्धत्व है और उसकी अज्ञान दशा अशुद्धत्व है। समय दोनों का एक ही है। यहाँ बद्धत्व कारण है और अशुद्धत्व कार्य है। (८९९) दूसरा अन्तर यह है कि बंध कार्य है क्योंकि बन्ध अर्थात् विभाव पूर्वबद्धकर्मों के उदय में जुड़ने से ही होता है और अशद्धत्व कारण है क्योंकि वह नये कर्मों को खेंचती है अर्थात उनके बन्धने के लिये निमित्त मात्र कारण हो जाती है। (९००) पहले अन्तर में बंध कारण है दूसरे में बंध कार्य है। पहले अन्तर में अशुद्धत्व कार्य है दूसरे में कारण है यही बद्धत्व और अशुद्ध दोनों में अन्तर है। (८९७) प्रश्न २११ - शुद्ध-अशुद्ध का क्या भाव है? उत्तर - औदयिक भाव अशुद्ध है क्षायिक भाव शुद्ध है। यह पर्याय में शुद्ध-अशुद्ध का अर्थ है। दूसरा अर्थ यह है कि औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक चारों नैमित्तिक भाव अशुद्ध हैं और उनमें अन्वय रूप से पाये जाने वाला सामान्य शुद्ध है। (९०१) प्रश्न २१२ - निश्चय नय का विषय क्या है तथा बद्धाबद्धनय ( व्यवहारनय) का विषय क्या है? उत्तर -- निश्चय नय का विषय उपर्युक्त शुद्ध सामान्य है तथा व्यवहार नय का विषय जीव की नौ पर्यायें अर्थात् अशुद्ध नौ तत्त्व हैं। (९०३) प्रश्न २१३ - द्रव्यदृष्टि से जीव तत्त्व का निरूपण करो। उत्तर - ऊपर प्रश्न नं १९७ के उत्तर में कह चुके हैं। (७९८,७९९,८००) प्रश्न २१४ - पर्यायदृष्टि से जीव तत्त्व का निरूपण करो । उत्तर - जीव चेतना रूप है। वह चेतना दो प्रकार की है - एक ज्ञानचेतना, दूसरी अज्ञानचेतना। अतः उनके स्वामी भी दो प्रकार के हैं। ज्ञानचेतना का स्वामी सम्यग्दृष्टि । अज्ञानचेतना का स्वामी मिथ्यादृष्टि, पर्यायदृष्टि से तीन लोक के जीव इन्हीं दो रूप हैं । (९५८ से १००५)
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy