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________________ ३३२ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी प्रश्न १९८ -- पर्यायदृष्टि से जीच के भेद स्वरूप सहित बताओ । उत्तर- एक बद्ध, एक मुक्त। जो संसारी है और अनादि से ज्ञाना-वरणादि कर्मों से मूच्छित अर्थात् कर्मों में जुड़ने से स्वभाव से च्युत और परभाव से मूर्छित होने के कारण स्वरूप को अप्राप्त है, वह बद्ध है। जो सब प्रकार के कर्म रहित स्वरूप को पूर्ण प्राप्त है वह मुक्त है। प्रश्न १९९ - बन्ध का स्वरूप भेद सहित बताओ। उत्तर - बन्ध तीन प्रकार का होता है -(१) भावबन्ध, (२) द्रव्यबन्ध, (३) उभयबन्ध । राग और ज्ञान के बन्य को भावबन्ध या जीवबन्ध कहते हैं। पुद्गल कर्मों को अथवा उनकी कर्मत्वशक्ति को द्रव्यबन्ध कहते हैं। जीव और कर्म के निमिन-नैमित्तिक संबंध को उभय बंध कहते हैं । (८१५,८१६) प्रश्न २०० - निमित्तमात्र के नामान्तर बताओ। उत्तर – निमित्तमात्र, कर्ता, असर, प्रभाव, बलाधान, प्रेरक, सहायक, सहाय, इन सब शब्दों का अर्थ निमित्तमात्र है (प्रमाण-श्रीतत्त्वार्थ सार तीसरा अजीव अधिकार श्लोक नं. ४३)। प्रश्न २०१ -- निमित्त-नैमित्तिक संबंध के नामान्तर बताओ। उत्तर - विपिन-नैमित्तिक, अविनाभाव, कारणकार्य हेतु हेतुमत्, साध्य साधक, बंध्य बन्धक, एक दूसरे के उपकारक वस्तु स्वभाव, कानूने कुदरत Autonmetic system - ये शब्द पर्यायवाची हैं। सब शब्दों का प्रयोग आगम में मिलता है। अर्थ केवल निमित्त की उपस्थिति में उपादान का स्वतन्त्र निरपेक्ष नैमित्तिक परिणमन है (मा, श्रीपंचाशतकात्र माथा टीका): प्रश्न २०२ - जीव कर्म और उनके बंध की सिद्धि करो। उत्तर - प्रत्यक्ष अपने में सुख-दुःख का संवेदन होने से तथा "मैं-मैं" रूप से अपना शरीर से भिन्न अनुभव होने से जीव सिद्ध है। कोई दरिद्र कोई धनवान देखकर उसके अविनाभावी रूप कारण कर्म पदार्थ की सिद्धि होती है। जीव में राग-द्वेष-मोह और सुख-दुःख रूप विभाव भावों की उत्पत्ति उनके बंध को सिद्ध करती है। यदि इनका बंध न होता तो जीव धर्मद्रव्यवत् विभाव न कर सकता। (७७३, ८९८,८१९) प्रश्न २०३-वैभाविकी शक्ति किसे कहते हैं ? उत्तर - आत्मा में ज्ञानादि अनन्त शुद्धशक्तियों की तरह यह भी एक शुद्ध शक्ति है। पदगल कर्म के निमित्त मिलने पर अर्थात् निमित्त का लक्ष्य करने पर इसका विभाव परिणमन होता है। स्वतः स्वभाव परिणामन होता है। इसी प्रकार पुद्गल में भी यह एक शक्ति है और उसका भी दो प्रकार का परिणमन होता है। इसी शक्ति के कारण जीव संसारी और सिद्ध रूप बना है। (८४८,८४९) प्रश्न २०४ - आत्मा को मूर्त क्यों कहते हैं ? उत्तर - जब तक आत्मा विभाव परिणमन करता है तब तक विभाव के कारण उसे उपचार से मूर्त कहा जाता है। वास्तव में वह अमूर्त ही है। (८२८) प्रश्न २०५ - बद्ध ज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर - जो ज्ञान मोहकर्म से आच्छादित है प्रत्यर्थ परिणमनशील है अर्थात् इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के संयोग में रागी-द्वेषी मोही होता है, वह बद्ध ज्ञान है। पहले गुणस्थानवर्ती अज्ञानी के ज्ञान को बद्धज्ञान कहते हैं। (८३५) प्रश्न २०६ -- अबद्ध ज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर - जो मोहकर्म से रहित है, क्षायिक है, शुद्ध है, लोकालोक का प्रकाशक है। वह अबद्ध ज्ञान है। केवली के ज्ञान को अबद्ध ज्ञान कहते हैं। (८३६) प्रश्न २०७-विभाव के नामान्तर बताओ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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