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________________ ३२६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी समाधान सूत्र १९१५ से ११२४ तक १० न यहात: प्रमाणं स्यात् साधने ज्ञानसौरव्ययोः । अत्यक्षस्थाशरीरस्य हेतोः सिद्भस्य साधनम् ॥ १११५ ।। अर्थ-ऐसा नहीं है क्योंकि इन्द्रिय रहित और शरीर रहित सिद्ध के ज्ञान और सुख की सिद्धि में प्रमाण है। जिसका साधन हेतु है वह इस प्रकार अस्ति शुद्ध सुर्ख ज्ञानं सर्वतः कस्यचिद्यथा । देशतोऽप्यरमदाटीनां स्वादुमात्र वत द्वयोः ॥ १११६ ॥ अर्थ-किसी जीव के देह इन्द्रिय और विषय के संयोग बिना शुद्ध(अतीन्द्रिय सुख और ज्ञान सम्पूर्णतया है) जैसे खेद है कि हम लोगों के भी उन दोनों (शुद्ध सुख और शुद्ध ज्ञान) का एक देश रूप से स्वादपात्र पाया जाता है। भावार्थ-यह सूत्र पहले नं १०३१ में नास्तिरूप में आचुका है। वहाँ ग्रन्थकार ने अपने में एकदेशविषय अभिलाषा के अभाव रूप हेतु से किसी के ( केवली के ) सर्वथा विषय अभिलाषा का अभाव सिद्ध किया था। यहाँ अपने में एकदेश अतीन्द्रिय सुख के अस्तित्व से सिद्ध के अनन्त सुख कोअन्यथानुपपत्ति रूप व्याप्ति से सिद्ध किया है। जिनका यह विचार है कि अपना सम्यक्त्व और अतीन्द्रिय सुख अपने को अनुभव में नहीं आता वह मात्र अवधि मनःपर्यय या केवलगम्य है वे इस सूत्र पर विचार करें। अध्यात्म के मर्मज्ञ जान सकते हैं कि इन सूत्रों से यह भी स्पष्ट है कि ग्रन्थकार छठे-सातवें गुणस्थान में झूलने वाले भावलिंगी मुनि थे क्योंकि जितनी स्वभाव पर्याय की प्रकटता इन दो सूत्रों में लिखी है वह मुनि दशा से नीचे नहीं होती। इसी प्रकार की ध्वनि श्री अमृतचन्दजी ने श्रीप्रवचनसार गाथा २०१ टीका की अन्तिम पंक्ति में दी है। वह इसप्रकार है, "उस श्रामण्य को अंगीकार करने का जो यथानुभूत मार्ग है उसके प्रणेता हम यह खड़े हुये हैं" इन शब्दों का अर्थ और ऊपर के दो सूत्रों का अर्थ एक ही है। इससे हमें तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पंचाध्यायी के कर्ता यही श्रीअमृतचन्द आचार्य थे । हमको श्रीपंचाध्यायी के प्रत्येक सूत्र से तथा उसकी गहराई के अर्थ से ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। अध्यात्म अनुभवी ज्ञानी हमारी प्रार्थना पर शान्ति और सूक्ष्मता से विचार करें। जो अपने सुख की व्याप्ति से सिद्धका सुख सिद्ध कर रहा है वह मुनि नहीं तो और कौन होगा? बिना भावलिंगीमुनिके ऐसा स्वाभिमानजनित सूत्र नहीं रचा जा सकता। ऐसी सामर्थ्य तो श्रीअमतचन्द्र जैसे शेर व्यक्ति की ही हो सकती है। ज्ञानानन्दौ चिलो धर्मों नित्यौ द्रव्योपजीसिनौ । देहेन्दियाटाभावेऽपि नाभावस्तदद्वयोरिति ॥१११७ ॥ अर्थ-ज्ञान और सुख आत्मा के नित्य और द्रव्य के अनुजीवी धर्म (गुण ) हैं। इसलिये (सिद्ध के ) देह-इन्द्रियविषय के अभाव होने पर भी उन दोनों का अभाव नहीं है किन्तु सद्भाव है। भावार्थ-कर्म-देह-इन्द्रिय-विषय तो प्रकट दसरा धर्मी है। वह तो संयोग रूप था। उसके हट जाने पर कहीं मूल द्रव्य का या उसके किसी गुण का नाश थोड़ाही हो जायेगा उलटा उसके अभाव में तो उसके निमित्त से जो विभाव पर्याय रूप परिणमन हो रहा था वह बदल कर अनन्त स्वभाव रूप परिणमन होगा।अतः सिद्ध में शुद्ध जीवास्तिकाय नामका चेतनद्रव्य है। उसके गुण ज्ञान आदि उसमें विद्यमान हैं और उनकी अनन्त सुखरूप तथा अनन्तज्ञानरूपस्वभाव पर्याय है जिसका उन्हें वेदन है (देखिये श्री पंचास्तिकाय गा.३७ तथा श्रीप्रवचनसार गाथा ६८)। इसी को अब कहते हैं सिद्धं धर्मत्वमानन्दज्ञानयोर्गुणलक्षणात् । यतस्तत्राप्यवस्थायां किंचिद्देहेन्द्रियं बिना ॥ १११८॥ अर्थ-क्योंकि आनन्द और ज्ञान में गुण लक्षण होने से धर्मपना ( गुणपना ) सिद्ध है इसलिये उस ( सिद्ध) अवस्था में भी किसी भी देह और इन्द्रिय के बिना ( वह पाया जाता है )। अर्थात् द्रव्य के गुण का कभी अभाव नहीं होता।अतः सुख और ज्ञान दोनों गुण सिद्ध में पाये जाते हैं। मतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहेन्द्रियारतदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुतत् ॥ १११९।।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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