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________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक ३२७ अर्थ-मतिज्ञान आदि के समय में भी आत्मा उपादान कारण है। देह-इन्द्रियां और उन इन्द्रियों के विषय बाह्य (निमित्त मात्र ) कारण हैं । वे अकारणापत् है अर्थात् किंचित्कार भावार्थ-पिछली परिभाषा से कोई यह न समझ ले कि सिद्ध में तो जीव के बिना देहादि के सुख होता है पर संसार में तो इनसे ही होता है तो इसका भी खण्डन करते हैं कि ऐसा भी नहीं है। यहाँ भी जीव स्वयं सुख गुण की विभाव पर्याय से सुखी-दुःखी होता है। विषयादि वास्तविक कारण नहीं हैं वे तो अकारणवत् हैं क्योंकि उसी विषय को भोगते हुए अपनी (कल्पनानुसार ) कोई अपने को सुखी मानता है तो कोई अपने को दुःखी मानता है। यह प्रत्यक्ष व्यभिचार दोष है। इसकी विशेष जानकारी के लिये श्री प्रवचनसार गा.६५-६६-६७ पढ़िये। यह तथा अगले ११२० से ११२४ तक का सब विषय इन्हीं गाथाओं का ज्यों का त्यों लिया हुआ है। संसारे वा विमुक्तौ वा जीवो ज्ञानादिलक्षणः । स्वयमात्मा भवत्येष ज्ञानं वासौरव्यमेव वा ॥ ११२०।। अर्थ-जीव संसार( अवस्था ) में अथवा सिद्ध( अवस्था) में-दोनों में-ज्ञान-सुख-आदि लक्षण वाला है। इसलिये यह आत्मा ही स्वयं ज्ञान अथवा सुखमय होता है (ज्ञान और सुख तो आत्मा की गुण पर्यायें हैं अत: उसमें ही होंगी। परका तो अत्यन्ताभाव है। स्पर्शादीन् प्राध्य जीवश्च स्वयं ज्ञानं सुरवं च तत् । अर्थाः स्पर्शादयस्तत्र किं करिष्यन्ति ते जहाः ॥११२१॥ अर्थ-जीव स्पर्श-आदि विषयों को प्राप्त करके स्वयं उस ज्ञान और सुखमय हो जाता है।(आत्मा के ) उस ( ज्ञान और सुख ) में स्पर्श आदि विषय (विचारे) वे जड़ क्या करेंगे? अर्थात् आत्मा अपने स्वकाल की योग्यता से सुख गुण की विभाव पर्यायरूप स्वयं परिणामन करता है। अर्थाः स्पर्शादयः स्वैरं ज्ञानमुत्पादयन्ति चेत् । घटादौ ज्ञानशून्ये च तत्किं नोत्पादयन्ति ते ॥ ११२२॥ अर्थ-यदि स्पर्श-आदि विषय स्वतन्त्र रूप से ज्ञान उत्पन्न करते हैं तो वे ज्ञानशन्य घटादि में भी उस ज्ञान सुखको क्यों उत्पन्न नहीं करते हैं ? अतः वे कुछ नहीं करते । आत्मा स्वयं सुखी-दुःखी होता है। इस पर भी कोई यह कहे कि वे चेतन पदार्थ में ही सुख उत्पन्न करते हैं जड़ में नहीं तो आचार्य कहते हैं कि चेतन तो स्वयं चेतन है वह स्वयं अपने में सुख-दुःख उत्पन्न करता है। देहविषयादि तो स्वयं जड़ है। वे चेतन वस्तु को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं। अतः संसार में विषय सुखी करते हैं यह भी भ्रम है। सोई कहते हैं। अथ चेच्चेतने द्रव्ये ज्ञानस्योत्पाटकाः क्वचित् । चेतनत्वात्स्वयं तस्य किं तत्रोत्पादयन्ति वा ॥ ११२३|| अर्थ-यदि यह कहो कि ये स्पर्शादिक चेतन द्रव्य में संसार अवस्था में सुख और ज्ञान को उत्पन्न करते हैं तो हम पूछते हैं कि उस आत्मा के स्वयं चेतन होने पर उस (चेतना) में ये क्या उत्पन्न करते हैं? क्या जड़ चेतन को उत्पन्न करता है ? नहीं। ये कुछ उत्पन्न नहीं करते वह स्वयं परिणमता है। ततः सिद्धं शरीरस्य पंचाक्षाणां तदर्थसात । अस्त्यकिंचित्करत्वं तच्चितो ज्ञानं सुखं प्रति ॥ ११२४ ।। अर्थ-इसलिये सिद्ध होता है कि शरीर के, पाँचों इन्द्रियों के और उन इन्द्रिय विषयों के, आत्मा के उस ज्ञान सुख के प्रति अकिंचित्करपना है अर्थात् संसार की सिद्धि दोनों जगह स्वयं आत्मा ज्ञान और सुख की स्वभाव पर्याय रूप परिणमन करके सुखी होता है और विभाव रूप परिणमन करके दुःखी होता है। ये जड़ पदार्थ कुछ नहीं करते। अब इसी को शङ्का समाधान द्वारा पीसते हैं। शङ्का जनु देहेन्द्रियार्थेषु सत्सु ज्ञानं सुरवं नृणां । असत्सु न सुखं ज्ञानं तदकिंचित्करं कथम् ॥ ११२५ ।।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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