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________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक सो सब्क्षणाणदरिसी कम्मरण णियेणवच्छण्णो । संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सब्च ॥ १६॥ अर्थ-वह ज्ञान (आत्मा)(स्वभाव से) सर्व को जानने-देखने वाला है. तथापि अपने कर्मफल से लिए होता हुआ-व्याप्त होता हुआ संसार को प्राप्त हुआ वह सब प्रकार से सर्व को नहीं जानता । टीका-जो स्वयं ही ज्ञान होने के कारण विश्व को ( सर्वपदार्थों को सामान्य विशेषतया जानने के स्वभाव वाला है ऐसा ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादिकाल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममल के द्वारा लिप्त या व्याप्त होने से ही, बंध अवस्था में सर्वप्रकार से सम्पूर्ण रुपने के ( शार्थाः सर्ग मार से सलीको जानने वाले अपने को) मानता हुआ, इस प्रकार प्रत्यक्ष अज्ञानभाव से ( अज्ञान दशा में रह रहा है। इससे यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बध स्वरूप है। इसलिये स्वयंबन्धस्वरूप होने से कर्म का निषेध किया गया है। भावार्थ-यहाँ भी 'ज्ञान' शब्द से आत्मा समझना चाहिए। ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य स्वभाव से तो सबको जाननेदेखने वाला है परन्तु अनादि से स्वयं अपराधी होने के कारण कर्मों से आच्छादित है, इसलिये वह अपने सम्पूर्ण स्वर को नहीं जानता, यों अज्ञान दशा में रह रहा है। इस प्रकार केवल ज्ञानस्वरूप अथवा मुक्त स्वरूप आत्मा कर्मों से लिप्त होने से अज्ञान रूप अथवा बद्ध रूप बर्तता है, इसलिए यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बधस्वरूप हैं; अतः कर्मों का निषेध किया गया है। अबुद्धिपूर्वक दुःख का वर्णन समाप्त हुआ। अगली भूमिका-इस प्रकार पहले ज्ञानी के इन्द्रिय सुख में हेय बुद्धि दिखलाई, फिर इन्द्रियज्ञान में हेय बुद्धि दिखलाई, फिर अबुद्धिपूर्वक दुःख में हेय बुद्धि दिखलाई । अब अतीन्द्रिय सुख और अतीन्द्रियज्ञान रूप सब कर्मों के अभावात्मक तथा पूर्ण स्वभाव के सद्भावात्मक जो सिद्ध दशा है उसका वर्णन करते हैं जिसमें सम्यग्दृष्टि की उपादेय बुद्धि है यह सिद्ध का वर्णन उपर्युक्त तीनों की नास्तिरूप 'अस्ति' है सो जानना । सिद्धों के अतीन्द्रिय सुख और अतीन्द्रिय ज्ञान की सिद्धि सूत्र १११३ से ११३८ तक २६ अपि सिद्धं सुरवं नाम यदानाकुललक्षणम् । सिद्धत्वादयि नोकर्मविप्रमुक्तौ चिदात्मनः || १११३ ।। अर्थ-(कर्मोदय मात्र से दुःख सिद्ध हो जाने से ) आत्मा के सिद्धपना होने से नोकर्म ( देह-इन्द्रिय-विषय) से रहित होने पर भी जो अनाकुल लक्षण सुख होता है वह भी सिद्ध हो गया। भावार्थ-पहले १०७६ से १११२ तक यह सिद्ध कर आये हैं कि कर्म से बद्धजीव घाति के विपाक में युक्त होने से ही अनन्त दुःखी है तो नास्ति से यह स्वतः सिद्ध हो गया कि उन कर्मों से मुक्त सिद्ध जीव में स्वाभाविक अनन्त सुख शङ्का ननु देहेन्द्रियाभाव: प्रसिद्धः परमात्मनि । सदभावे सुखं ज्ञान सिद्धिमुन्नीयले कथम् ।। १११४ ॥ शङ्का-परमात्मा में (सिद्ध में ) देह इन्द्रिय और विषय का अभाव प्रसिद्ध है तो फिर उस ( देह-इन्द्रिय-विषय) के अभाव में ( उस सिद्ध के ) सुख और ज्ञान कैसे सिद्ध किया जाता है ? भावार्थ-शिष्य ने इन्द्रिय सम्बन्धी सुख और ज्ञान ही माना है । अतीन्द्रिय सुख तथा ज्ञान को उड़ा ही दिया है। * सिद्धों के ज्ञान सुख से भाव अपनी आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान सुख से है जिसकी सम्यग्दृष्टि को रुचि है। अन्य जीवों को रुचि कराने का प्रयोजन है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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