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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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एतत्सर्वज्ञवचनमाज्ञामानं तदागमः ।
यावत्कर्मफल दुःख पच्यमानं रसोन्मुखम् ॥ ११०५ ॥ अर्थ-यह सर्वज्ञ का वचन है आज्ञामात्र है, वही आगम है। कि जो कुछ रस देने के सन्मुख उदयागत कर्म का फल है वह दुःख है। (श्रीसमयसार ४५)।
आशियानाशाजीचा मार्मणकायकाः ।
आ एकाक्षादापंचाक्षा अप्यन्ये दु:रिवनो मताः || ११०६ ।। अर्थ-इस विषय में यह दृष्टान्त है कि (विग्रहगति में ) कार्मण काय वाले जीव तथा एक इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय तक अन्य भी जीव दुःखी माने गये हैं।
भावार्थ-यदि तम्हारी राय में शरीर और संयोग सम्बन्धी ही दःख है और अबुद्धिपूर्वक कर्मोदयजन्य कोई दुःख ही नहीं तो विग्रहगति में तो न शरीर है, न संयोग है, न बुद्धिपूर्वक दुःख है तो क्या वहाँ आत्मा सिद्ध समान अनन्त सुखी है ? नहीं। दूसरे शरीर और संयोग तो पंचेन्द्रिय संज्ञियों को अधिक है। एकेन्द्रिय से पाँच इन्द्रिय असंज्ञी जीव को कम तो इस प्रकार तुम्हारे कहे अनुसार तो वे अधिक सुखी हुए, संजी कम किन्तु ऐसा नहीं है जितनी-जितनी ऊँची गति है उतना-उतना कम दुःख है। यदि ऐसा न्याय न हो तो ऊँची गति ही व्यर्थ हो जाय सो यह कथन अबुद्धिपूर्वक दुःख से ही तो सिद्ध होगा। न्याय यह है कि जहाँ घातिकर्मों का जितना अधिक उदय है उतना ही जीव अधिक दुःखी है क्योंकि स्वरूप से च्युति के अनुसार स्वभाव का घात हो रहा है। स्वभाव के घात का नाम दुःख है। स्वभाव की प्रकटता का नाम सुख है। सिद्ध में पूर्ण प्रकटता है वे महान् मुखी है। निगोद में सबसे कम प्रगटता है वे सबसे अधिक दःखी हैं। यही अब समझाते हैं।
तत्राभिव्यंजको भावो वाच्यं दुःखमनीहितम् ।
घातिकमोदयाघाताज्जीवदेशवधात्मकम् ॥११०७ ।। म आगम में अभिव्यंजक भाव प्रकट अर्थ यह है कि घाति कर्मों के उदय के आघात से जीव के प्रदेशों में वध स्वरूप अनिच्छित दुःख कहा गया है। अर्थात् घातिकर्मों के उदय से अनन्त अबुद्धिपूर्वक दुःख होता है ऐसा आगम में कहा गया है। (जीव की प्रत्येक समय की योग्यता का ज्ञान कराने के लिए यह सब निमित्त के कथन हैं किन्तु निमित्त जीव को हैरान कि दुःखी करता ऐसा अर्थ कभी नहीं समझना)
अन्यथा न गति: साध्वी दोषाणां सन्निपालतः ।
संज्ञिना दुःखमेवैकं दुर्च नासंझिनामिति || ११०८॥ अर्थ-यदि ऐसा न माना जाये तो ऊँची गति पाना अच्छा नहीं रहेगा क्योंकि दोषों का प्रसंग आता है और वह इस प्रकार कि केवल संज्ञी जीवों के ही दुःख सिद्ध होगा, असंजियों के दुःख न होगा ।
महच्चेसंज्ञिनां दुःखं स्वल्पं चासंज्ञिना न वा ।
यतो नीचपदाच्चैः पदं शेयस्तथामतम् ॥ ११०९॥ अर्थ-यदि यह कहा जाय कि संज्ञियों के बहुत दुःख है और असंज्ञियों के थोड़ा है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि नीच पद से ऊँच पद श्रेष्ठ है ऐसा माना गया है।
भावार्थ-नीची गति से ऊँची गति इसलिये अच्छी मानी गई है कि उसमें कम दुःख है। इसलिये यही बात ठीक है कि संजियों के दुःख कम है असंजियों के अधिक है।
न च वाच्यं शरीरं च स्पर्शनादीन्द्रियाणि च ।
सन्ति सूक्ष्मेषु जीवेषु तत्फलं दुःरवमङ्गिनाम् ॥ १११० ॥ अर्थ-यह भी नहीं कहना चाहिये कि सूक्ष्म जीवों में शरीर और स्पर्शन-आदिक इन्द्रियाँ हैं इसलिये उन जीवों के उस शरीर और इन्द्रिय के कारण दुःख है।
भावार्थ-अब कोई यह कहे कि यह तो ठीक है कि ऊँची गति में दुःख कम है नीची में अधिक है पर नीची में अबुद्धिपूर्वक दुःख के कारण अधिक नहीं है किन्तु उनके जो छोटा-सा शरीर और एक-दो इन्द्रियाँ हैं उसके कारण