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द्वितीय खण्ड चौथी पुस्तकं
समाधान सूत्र १०९३ से १९१२ तक २०
नैवं यत्तद्विपक्षस्य व्याप्तिर्दुःखस्य साधने !
कर्मणस्तद्विपक्षत्वं सिद्धं न्यायात्कुतोऽन्यथा ॥ १०९३ ॥
अर्थ - ऐसा नहीं है क्योंकि उस (आत्म सुख ) के विपक्ष भूत दुःख के सिद्ध करने में (अबुद्धिपूर्वक दुःख के साथ सुखाभाव की) व्याप्ति है अन्यथा कर्म के उस (सुख) का विपक्षपना किस न्याय से सिद्ध होगा ?
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भावार्थ - आत्मा का स्वभाव अनन्त सुख है। कर्म का स्वभाव अनन्त दुःख है। कर्म रहित जीव के अनन्त सुख है तो कर्म सहित जीव के अनन्त दुःख है। इसलिये आत्मिक सुख के अभाव की और अनन्तदुःख के सद्भाव की व्याप्ति है। अविनाभाव है। यदि ऐसा नहीं है तो कर्मबद्ध जीव के कर्मों के कारण से अनन्त दुःख है यह कैसे सिद्ध होगा अर्थात् कर्म आत्मा का विरोधी है यह कैसे सिद्ध होगा ? और विरोधी तो उसको आगम में कहा है।
विरुद्धधर्मयोरेव वैपक्ष्यं नाविरुद्धयोः ।
शीतोष्णधर्मयोर्वैरं न तत्क्षारद्रवत्वयोः || १०२४ ॥
अर्थ - विरुद्ध दो धर्मो में ही विपक्षपना होता है अविरुद्धों में नहीं । शीत-उष्ण धर्मों में बैर है । वह ( बैर ) क्षारत्व द्रवत्व में नहीं है।
भावार्थ- आत्मिक सुख और अनन्त दुःख में विरुद्धता है। उनमें एक ही रहेगा। दोनों नहीं। जिस प्रकार ठण्डा या गरम में से कोई एक ही एक समय होगा। जिस प्रकार खारापन और पिघलना एक जगह रह सकते हैं उस प्रकार यह एक जगह नहीं रह सकते क्योंकि
निराकुलं सुखं जीवशक्तिद्रव्योपजीविनी ।
तद्विरुद्धाकुलत्वं वै शक्तिस्तद्धातिकर्मणः ॥ १०९५ ॥
अर्थ-निराकुल सुख जीव की शक्ति है जो द्रव्य की अनुजीवी (शक्ति) है। उस सुख से विरुद्ध आकुलता है वह उस घातिकर्म की शक्ति है।
असिद्धा न तथाशक्तिः कर्मणः फलदर्शनात् ।
अन्यथाऽऽत्मतया शक्तेर्बाधकं कर्म तत्कथम् ॥ १०९६ ॥
अर्थ-कर्म की जैसी शक्ति असिद्ध नहीं है क्योंकि फल ( ऐसा ही ) देखा जाता है। यदि ऐसा नहीं है तो आत्म शक्ति का बाधक वह कर्म कैसे हो सकता है ?
न्यायात् सिद्धं ततो दुःखं सर्वदेशप्रकम्पतत् ।
आत्मनः कर्मबद्धस्य यावत्कर्मरसोदयात् ॥ १०९७ ॥
अर्थ- इसलिये न्याय से सिद्ध हो गया कि कर्मबद्ध आत्मा के सब प्रदेशों में प्रकम्प पैदा करने वाला दुःख तब तक है जब तक कर्मों का रस- उदय है।
देशलोऽस्त्यत्र दृष्टान्तो वारिधिर्वायुना हतः ।
व्याकुलोऽव्याकुलः स्वस्थः स्वाधिकारप्रमत्तवान् 11 १०२८ ॥
अर्थ - इस विषय का एकदेश दृष्टान्त यह है कि वायु से ताड़ित समुद्र स्व अधिकार में प्रमत्तवान व्याकुल है स्वस्थ अव्याकुल है। अर्थात् जिस प्रकार समुद्र जब तक वायु से ताड़ित है तब तक दुःखी है वायु के अभाव में सुखी है, उसी प्रकार जब तक आत्मा में कर्म का उदय है तब तक दुःखी है। कर्म का अभाव होने पर सुखी है।
न च वाच्यं सुखं शश्वद्विद्यमानमिवास्ति तत् । हेतोस्तच्छक्तिमात्रतः ॥ १०९९ ॥
बद्धस्याथाप्यबद्धस्य
अर्थ - ऐसा भी नहीं कहना चाहिये कि वह सुख बद्ध और अबद्ध के निरन्तर विद्यमान के समान है और इसमें हेतु यह कि वह उस आत्मा की शक्ति मात्र है।
भावार्थ- क्योंकि सिद्ध में और संसारी में सुख नामा गुण दोनों में है अतः यह संसारी भी अनन्त सुखी है इसमें अबुद्धिपूर्वक दुःख नहीं है ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि वह कथन द्रव्यार्थिक नय का है। द्रव्य की शक्ति का है