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________________ ३२० ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अस्ति संसारिजीवस्य नूनं दुःस्वमबुद्धिजम् । सुखस्यादर्शनं स्वस्य सर्वतः कथमन्यथा ॥ १०८६ ॥ अर्थ- संसारी जीव के निश्चय से अबुद्धिपूर्वक दुःख है अन्यथा स्व-सुख का ( आत्मा के स्वाभाविक सुख का ) सर्वथा अदर्शन (लोप) कैसे हो गया है ? ततोऽनुमीयते दुःखमस्ति नूनमबुद्धिजम् । अवश्यं कर्मबद्धस्य नैरन्तर्योदयादिनः || १०८७ ॥ अर्थ- इसलिये अनुमान किया जाता है कि कर्म बद्ध के निरन्तर कर्म के उदयादि से होने वाला अबुद्धिजन्य दुःख वास्तव में अवश्य है। भावार्थ- सुख के अभाव से तो उस अबुद्धिपूर्वक दुःख की सत्ता सिद्ध हो जाती है पर अब उसकी उत्पत्ति का कारण क्या है यह बताते हैं। जिस प्रकार अनन्त सुख की उत्पत्ति का कारण स्वतः सिद्ध आत्मस्वभाव है उसी प्रकार इस दुःख का कारण कर्मों के उदय में जुड़ना है। (श्री समयसार गा. ४५, १६० ) । नावाच्यता यथोक्तस्य दुःखजातस्य साधने । अर्थादबुद्धिमात्रस्य हेतोरौदयिकत्वतः ॥ १०८८ ॥ अर्थ - पूर्वोक्त (अबुद्धिपूर्वक ) दुःख उत्पत्ति के सिद्ध करने में अवाच्यता नहीं है क्योंकि अबुद्धिपूर्वक जितना भी दुःख होता है उसका मूल कारण वास्तव में कर्म का उदय है। यहाँ तक अबुद्धिपूर्वक दुःख सिद्ध किया। अब इसी को शंका समाधान द्वारा पीसते हैं। शंका सूत्र १०८९ से १०९२ तक ४ तद्यथा कश्चिदत्राह नास्ति बद्धस्य तत्सुखम् । यत्सुखं स्वात्मनस्तत्त्वं मूच्छितं कर्मभिर्बलात् ॥ १०८ ॥ शङ्का - यहाँ कोई कहता है वह इसप्रकार कि-बद्ध (जीव ) के वह सुख नहीं है जो सुख अपनी आत्मा का तत्त्व (स्वभाव) है क्योंकि वह सुख बलपूर्वक कर्मों के द्वारा मूच्छित है। अस्त्यनिष्टार्थसंयोगाच्छारीरं दुःखमात्मनः । ऐन्द्रियं बुद्धिजं नाम प्रसिद्धं जगति स्फुटम् || १०९० ॥ * शङ्का चालू - अनिष्ट पदार्थ के संयोग से शारीरिक और ऐन्द्रिय केवल बुद्धि जन्य दुःख आत्मा के है जो जगत में प्रगट प्रसिद्ध है। मनोदेहेन्द्रियादिभ्यः पृथग् दुखं नाबुद्धिजम् । तग्राहकप्रमाणस्य शून्यत्वात् व्योमपुष्पवत् ॥ १०९१ ॥ शङ्का चालू - मन- देह-इन्द्रिय आदि से पृथक् अबुद्धिजन्य दुःख नहीं है क्योंकि उसके ग्राहक प्रमाण का अभाव है जैसे आकाश पुष्प साध्ये वाऽबुद्धिजे दुःखे साधनं तत्सुखक्षतिः । हेत्वाभासः स व्याप्यत्त्वासिद्धौ व्याप्तेरसंभवात् ॥ १०८२ ॥ शङ्का चालू - और अबुद्धिजन्य दुःख की सिद्धि में उस ( आत्मा ) के सुख का अभाव रूप जो हेतु आपने दिया है व्याप्यत्व की असिद्धि होने से (व्याप्यत्वासिद्ध नाम का ) हेत्वाभास है क्योंकि व्याप्ति की असंभवता है। भावार्थ १०८९ से ९२ तक- शंकाकार अनन्तचतुष्टय रूप सुख का अभाव तो मानता है क्योंकि वह जानता है। कि अनन्तसुख तो केवली होने पर प्रगट होगा। बुद्धिपूर्वक दुःख भी मानता है क्योंकि यह प्रत्यक्ष है। अबुद्धिपूर्वक दुःख तथा उसका साधक हेतु नहीं मानता है। उसमें एक दलील देता है कि शरीर सम्बन्धी दुःख तो सब जानते हैं पर बिना शरीर के भी कोई अनन्त अबुद्धिपूर्वक दुःख आत्मा के है यह मेरी समझ में नहीं आता।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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