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________________ द्वितीय खण्ड /चौथी पुस्तक हुई है अन्यथा यह पानी नहीं आ सकता था। यद्यपि वर्षा आँख से देखी नहीं है फिर भी उसका सत्य निश्चय जरूर हो जाता है। पानी का आना कार्य है और वर्षा का होना कारण है। अतः कार्य और कारण में अविनाभाव होने से कार्य द्वारा कारण का निश्चय अवश्यंभावी है। उसी प्रकार आत्मा के अनन्तचतुष्टयरूपसुख का लोप रूप कार्य तो प्रत्यक्ष है। यह कार्य बिना कारण हो नहीं सकता । इसका कारण इसका विरोधी अनन्त दुःख है और वह अबुद्धिपूर्वक दुः ख ही हो सकता है। इस कार्यकारण की व्याप्ति से उस अबुद्धिपूर्वक दुःख की भले प्रकार सिद्धि हो जाती है। अरत्यात्मनो गुणः सौरव्यं स्वतः सिद्धमनश्वरम् । घातिकर्माभिघातत्वादसद्वाऽदृश्यतां ३१९ गतम् || १०८१ ।। अर्थ - आत्मा का सुख गुण स्वतः सिद्ध, अविनाशी है। वह घाति कर्मों के द्वारा घात हो जाने से असत् के समान लोप हो गया है। भावार्थ -- आत्मा के अना गुणों में एक म का गुण है। आह्लादरूप निराकुलता का अनुभव उसकी स्वभाव पर्याय होती है। घाति कर्मों में जुड़ने से उस सुख की स्वभावपर्याय का जो अभाव हो रहा है यह अभाव उसकी अबुद्धिपूर्वक दुःख रूप विभाव पर्याय के अस्तित्व का सूचक तो है ही । यही अब कहते हैं। सुखस्यादर्शनं कार्यलिङ्ग लिङ्गमिवात्र तत् । कारणं तद्विपक्षस्य दुःखस्यानुमितिः सतः ॥ १०८२ ॥ अर्थ-यहाँ ( इस अनुमान प्रयोग में) सुखका अदर्शन' (रूप हेतु ) अन्य हेतुओं की तरह कार्यहेतु है और वह ( अबुद्धिपूर्वक दुःख) कारण (रूप साध्य ) है । (सुख के अदर्शन रूप हेतु से ) उस (सुख) के विपक्षभूत सत्तात्मक दुःख का ज्ञान होता है। भावार्थ- जैसे नदी में बहाओं का आना कार्यहेतु है ऐसे ही यहाँ अनन्त चतुष्टय रूप सुख का अभाव कार्यहेतु है । जैसे वहाँ वर्षा का होना रूप कारण साध्य है ऐसे यहाँ अबुद्धिपूर्वक दुःख की सत्ता साध्य है। जैसे वहाँ अन्यथानुपपत्ति रूप अविनाभाव से आँख से प्रत्यक्ष न दीखने पर भी ज्ञान द्वारा वर्षा की सिद्धि हो जाती है उसी प्रकार यहाँ अबुद्धिपूर्वक दुःख न दीखने पर भी अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु द्वारा उसकी सिद्धि हो जाती है। इसका कारण व्याप्ति (अविनाभाव ) का सद्भाव है। यही अगले दो पद्यों में कहा है। सर्वसंसारिजीवानामस्ति दुःखमबुद्धिजम् । हे तोनैसर्गिकस्यात्र सुखस्याभावदर्शनात् ॥ १०८३ ॥ अर्थ- सब संसारी जीवों के अबुद्धि जन्य दुःख है। हेतु यह है कि इसमें स्वाभाविक सुख का अभाव देखा जाता है। नासौ हेतुरसिद्धोऽरित सिद्धसंदृष्टिदर्शनात् । व्याप्तेः सद्भावतो नूनमन्यथानुपपत्तितः ॥ १०८४ ॥ अर्थ- वह (सुखादर्शनरूप ) हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि प्रसिद्ध दृष्टांत देखे जाते हैं। (सुख के अदर्शन रूपहेतु और अबुद्धिपूर्वक दुःख का सद्भाव रूप साध्य में ) व्याप्ति का सद्भाव होने से निश्चित रूप से अन्यधानुपपत्ति है। व्याप्तिर्यथा विचेष्टस्य मूर्छितस्येव कस्यचित् । अदृश्यमपि मद्यादिपानमस्त्यत्र कारणम् ॥। १०८५ ॥ अर्थ - ( इन दोनों में ) व्याप्ति इस प्रकार है कि जैसे किसी कुचेष्टा करने वाले मतवाले पुरुष के अदृश्य भी मद्यादि 'का पान इसमें कारण है । भावार्थ - एक और दृष्टांत देते हैं कि जैसे हम किसी को शराबीपने की कुचेष्टाएं करते हुए देखें तो हम तुरन्त निश्चय कर लेते हैं कि इसने शराब पी है क्योंकि कुचेष्टारूप कार्य से शराब पीना रूपकारण का अविनाभाव है। कुचेष्टा की ' अन्यथानुपपत्ति' होने से शराब पीने की सिद्धि है उसी प्रकार अनन्तचतुष्टयरूप सुख के अदर्शन रूप कार्य से अनन्त अबुद्धिपूर्वक दुःख की सत्ता सिद्ध है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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