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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
सुख है। जिस प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान की नास्ति इन्द्रिय ज्ञान है उसी प्रकार सिद्धपद की नास्ति यह अबुद्धिपूर्वक दुःख है। सिद्धपद अनन्त सुखरूप है यह अनन्त दुःख रूप है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि को इन्द्रिय सुख हेय है, इन्द्रिय ज्ञान हेय है, उसी प्रकार यह अबुद्धिपूर्वक दुःख भी हेय है। सम्यग्दष्टि जीव को इस अबद्धिपूर्वक दःख का पता है और इसी कारण सिद्ध से विपरीत जो यह आत्मा की हीन दशा है इसमें भी उसकी अरुचि है। यही यहाँ दिखलाना है सो अब १०७६ से १११२ तक ३७ सूत्रों में इसका वर्णन करेंगे और उसके पश्चात् सिद्ध दशा का वर्णन करेंगे जिसमें
योजन यह है कि भव्य जीव को अपनी वर्तमान दःख दशा का अनुभव होकर इसके प्रति अरुचि हो और अपनी स्वभावरूप सिद्ध दशा का ज्ञान होकर उसके प्रति रुचि होयही यहाँ तात्पर्य है।रे जीव! जाग! और देख तेरी कैसी हीन दशा हो रही है और इस पर भी तू इसे सुख रूप समझता है।
अबुद्धिपूर्वक दुःख की सिद्धि सूत्र १०७६ से १११२ तक ३७ बुद्धिपूर्वकदुःखेषु दृष्टान्ताः सन्ति केचन ।
नाबुद्धिपूर्वके दुःरवे ज्ञानमात्रैकगोचरे || १०७६॥ अर्थ-बुद्धिपूर्वक दुःखों में कितने ही दृष्टान्त है किन्तु एक ज्ञान मात्र गोचर अबुद्धिपूर्वक दुःख में (कोई भी दृष्टान्त ) नहीं है। अर्थात् दुःख दो प्रकार का होता है। एक बुद्धिपूर्वक दूसरा अबुद्धिपूर्वक यह जो कभी चर हो गया, सर दर्द हो गया, लड़का मर गया इत्यादिक बुद्धिपूर्वक दुःख कहलाते हैं। और अनन्तचतुष्टय का घात अबुद्धिपूर्वक दुःख है। बस इसका और कोई शब्द या दृष्टांत नहीं है।
अस्यात्मनो महादुःखं गाळं बद्धरम्य कर्मभिः ।
मन:पूर्व कदाचिद्वै शश्वत्सर्वप्रदेशजम् ।। १०७७ ।। अर्थ-कर्मों के द्वारा गाढ़ बंधे हुये इस आत्मा के ( अबुद्धिपूर्वक ) महा दुःख है जो सब प्रदेशों में उत्पन्न होने वाला निरंतर है; मनपूर्वक (बद्धिपूर्वक दुःख ) तो कभी-कभी होता है अर्थात बुद्धिपूर्वक दुःख तो कभी-कभी होता है किन्तु अनन्त चतुष्ट्य का घातरूप दुःख तो हर समय है और सब आत्मप्रदेश में निरन्तर विद्यमान है। (श्रीसमयसार गाथा ४५ तथा १६०)।
अस्ति स्वस्यानुमेयत्वाद् बुद्धिर्ज दुःखमात्मनः ।
सिद्भत्वात्साधनेनाले वर्जनीयो वृथा श्रमः || १०७८ ॥ अर्थ-आत्मा के बुद्धिजन्य दुःख है क्योंकि अपने अनुभव में आता है। (वह प्रत्यक्ष ) सिद्ध होने से पुन: सिद्ध करने से क्या लाभ (क्योंकि ) व्यर्थ परिश्रम त्याज्य है। अर्थात् थर इत्यादिक के सांसारिक दुःख तो सबको अनुभव है ही उनको क्या सिद्ध करेंगे। हाँ अबुद्धिपूर्वक दुःख की सिद्धि करके दिखलाते हैं।
साध्य तन्निहितं दुःरवं नाम यावदबुद्धिजम् ।
कार्यानुमानतो हेतुर्ताच्यो वा परमागमात् ॥ १०७९ ।। अर्थ-जो अबुद्धिजन्य छुपा हुआ दुःख है वह सिद्ध करना चाहिये। उसकी सिद्धि के लिये या तो सुखादर्शन रूप) कार्य के अनुमान से (अबुद्धिपूर्वक दुःख का अस्तित्व रूप) कारण वाच्य है या परमागम से वाच्य है।
भावार्थ-अबुद्धिपूर्वक दुःख है इसकी सिद्धि या तो केवली के वचनरूप आगम से है या इस अनुमान प्रमाण से है कि आत्मा के जो अनन्त चतुष्टयरूप सुख का लोप हो रहा है यह ही इसके विरोधी दुःख के अस्तित्व का द्योतक है।
अस्ति कार्यानुमानाद्वै कारणानुमितिः क्वचित् ।
दर्शलान्जदपूरस्य देतो वृष्टो यथोपरि ।। १०८० ॥ अर्थ-कहीं-कहीं कार्य के देखने से कारण का ज्ञान होता है जैसे नदी के पूर (रूप कार्य) के देखने से ऊपर बहुत मेघ वर्षा (रूप कारण का ज्ञान होता) है।
भावार्थ-वह अबुद्धिपूर्वक दुःख प्रत्यक्ष न दीखने पर भी ज्ञानीजन अनुमान से उसका बराबर निर्णय कर लेते हैं। हम देखते हैं कि यदि सूखी नदी में बहाव आ जाय तो हम तुरन्त निश्चय कर लेते हैं कि ऊपर पहाड़ पर बहुत वर्षा