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________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अस्ति तत्रापि हेतुर्वा पकाशो रविटीपयोः । अन्यदेशरथसंस्कारः पारंपर्यावलोकनम् ॥ १०६७ ॥ अर्थ-उसमें भी सूर्य और दीपक का प्रकाश, अन्यदेशस्थ संस्कार और परम्परा अवलोकन कारण है। एतेषु हेतुभूतेषु सत्सु सद्भानसभवात् । रुपेणैकेन हीनेषु ज्ञानं नार्थोपयोगि तत् ॥१०६८॥ अर्थ-इन सब हेतओं के रहने पर ठीक प्रतिभास होता है (अर्थात उपयोग हो सकता है |उन कारणों में से किसी एक कारण के कम रहने पर वह जान अपने विषय में उपयोगी नहीं हो सकता। अस्ति तत्र विशेषोऽयं बिना बाहोल हेतुला । ज्ञानं नार्थोपयोगीति लब्धिज्ञानस्य दर्शनात् ॥ १०६९ ॥ अर्थ-वहाँ पर यह विशेष कि बाह्य हेट के लिना जान अपने विषय हो गहण नहीं करता (यद्यपि) लब्धिज्ञान देखा जाता है। भावार्थ-(१०६२ से ६९ तक)- इन्द्रियज्ञान लब्धि में प्राप्त होने पर भी इतना निकृष्ट है कि उपर्युक्त इतने कारण जुटने पर ही अर्थात् उतने कारणों का अवलम्बन लेकर ही उपयोगात्मक कार्य कर सकता है अन्यथा नहीं। इस कारण से सम्यग्दृष्टि की इस ज्ञान में हेय बुद्धि है तथा अतीन्द्रिय ज्ञान में लब्ध तथा उपयोग का झगड़ा नहीं है और न ही उस की प्रवृत्ति में कोई बाह्य कारण होता है। वह तो स्वतन्त्र निरपेक्ष कार्य करता है अतः सम्यग्दृष्टि की उसमें उपादेय बुद्धि होती है। अब यह बताते हैं कि लब्धि में होना भी इस ज्ञान का कर्म के क्षयोपशम आधीन है। देशतः सर्वतो घातिस्पर्धकाजामिहोदयात् । क्षायोपशभिकावस्था न चेज्ञानं न लब्धिमत || १०७०॥ अर्थ-इन्द्रिय ज्ञान में सर्वघाति स्पर्द्धकों के उदयाभावी क्षय और देशघाति स्पर्द्धकों के उदय होने से ज्ञान की क्षयोपशामिक अवस्था होती है। यदि ज्ञान की ऐसी अवस्था न होवे तो वह लब्धि रूप ज्ञान भी नहीं होता। तत: प्रकृतार्थमेवैतदिमात्रं ज्ञानमैन्द्रियम् । तदर्थार्थस्य सर्वस्य देशमात्रस्य दर्शनात् ॥ १०७१॥ अर्थ-इसलिये प्रकत अर्थ यह ही है कि इन्द्रिय ज्ञान नाममात्र का ज्ञान है क्योंकि उसके विषयभत सभी पदार्थों का एकदेशरूप से ही ज्ञान होता है। खण्डितं रखण्डशस्तेषामेकैकार्थरय कर्षणात् । प्रत्येक नियतार्थस्य व्यस्तमाने सति कमात् ॥ १०७२।। अर्थ-वह (इन्द्रियज्ञान)खण्डित है क्योंकि उन सब विषयों में से अपने-अपने विषयभूत एक-एक ही पदार्थको खण्डश: विषय करता है। और प्रत्येक है क्योंकि भिन्न-भिन्न विषय होने पर नियत विषय को ही क्रम से जानने वाला है। भावार्थ-जिस प्रकार केवलज्ञान आत्मा के सर्व प्रदेशों में समान रूप से पाया जाता है तथा सभी प्रदेशों के समान रूप से लोकालोक को जानता है उस प्रकार इन्द्रिय ज्ञान नहीं है। इन्द्रिय ज्ञान का क्षयोपशम विकास तो असंख्यप्रदेश में वर्तता है किन्तु विषय ग्रहण जिस इन्द्रिय का है वह उसी स्थान से काम करता है जैसे रूप को जानने वाला आत्मा का ज्ञान चक्षु के स्थान में स्थित प्रदेशों से ही रूप को ग्रहण करेगा, शब्द को जानने वाला कर्ण के स्थान में स्थित आत्मप्रदेशों से ही शब्द को जानेगा। इस प्रकार यह इन्द्रिय ज्ञान पांच स्थानों में खण्डित है और जिस स्थान का जो विषय है वह उसी को जानेगा दूसरे को नहीं जैसे चक्षुःस्थानस्थित प्रदेश रस को नहीं जान सकते और फिर एक और आपत्ति है कि एक समय में एक स्थान का ही कार्य होगा जैसे जिस समय रूप को जानने का कार्य हो रहा है उस समय अन्य इन्द्रिय द्वारा कार्य नहीं लिया जा सकता है। अतः यह इन्द्रिय ज्ञान अपने-अपने विषय को भी क्रमशः ही जानता है। अतः यह हेय है अतीन्द्रियज्ञान सब विषयों को प्रत्येक स्थान से जानता है अतः वह उपादेय है (श्री प्रवचनसार गा, ४७,५६)।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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