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द्वितीय खण्ड /चौथी पुस्तक
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तेषामावरणान्युच्चैरालापाच्छविततोऽथवा
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प्रत्येकं सन्ति तावन्ति सन्तानस्यानतिक्रमात् ॥ १०५९ ॥
अर्थ- उनके आवरणों के आलाप और शक्तियाँ भी भिन्न-भिन्न उतने ही प्रकार के हैं जितने प्रकार के ज्ञान के भित्रभिन्न आलाप और भिन्न-भिन्न शक्तियाँ हैं क्योंकि वे समानता को उलङ्घन नहीं करते ।
भावार्थ - ऐसा ही कोई स्वतः सिद्ध नियम है कि जितनी जीव में इन्द्रिय ज्ञान की लब्धि होती है ठीक उतनी ही डिगरी का ज्ञानावरणीय कर्म का स्वतः अपने कारण से क्षयोपशम होता है अथवा यों भी कह सकते हैं कि स्वत: सिद्ध जैसे-जैसे कर्मों का क्षयोपशम होता है ठीक वैसा ही स्वतः सिद्ध जीव में ज्ञान का क्षयोपशम भी अपने ही कारण से उतना ही होता है। ऐसा ही कोई वस्तु स्वभाव है। किसी का बनाया हुवा नहीं है। परिणामन दोनों का स्वतः सिद्ध स्वतन्त्र है। एक दूसरे के कर्ता नहीं हैं।
तत्रालापस्य यस्योच्चैर्यावदंशस्य कर्मणः ।
क्षायोपशमिकं नाम स्यादवस्थान्तरं स्वतः ॥ १०६० ॥
अर्थ- उनमें कर्म के (जिस समय ) जिस आलाप के अधिक से अधिक जितने अंश का क्षयोपशम होता है ठीक उतने ही अंशों में उस समय ज्ञान की स्वतः अपने कारण से क्षायोपशमिक रूप अवस्थान्तर हो जाती है।
अपि बीर्यान्तरायस्य लब्धिरित्यभिधीयते ।
तदैवास्ति स आलापस्तावदंशश्च शक्तितः ॥ ५०६१ ॥
अर्थ - (जिस समय जितने अंशों वाला मति श्रुत ज्ञानावरण सम्बन्धी आलाप का क्षयोपशम होता है) उसी समय वीर्यान्तराय कर्म का भी वही आलाप उसी शक्ति को धारण करने वाला क्षयोपशम में होता है तब उतनी ही जो इन्द्रिय ज्ञान की क्षयोपशम रूप सत्ता है वह लब्धि कही जाती है। अब यह बताते हैं दैवयोग से लब्धिरूप इतना ज्ञान प्राप्त होने पर भी वह उपयोग द्वारा प्रयोग में तब ही आ सकता है जबकि -
उपयोगविवक्षायां हेतुरस्यास्ति तद्यथा ।
अस्ति पंचेन्द्रियं कर्म कर्म स्यान्मानसं तथा ॥ १०६२ ॥
अर्थ - इस (इन्द्रिय ज्ञान ) की उपयोग विवक्षा में हेतु है वह इस प्रकार है कि एक पंचेन्द्रिय नामक कर्म है और एक मानस नामानामकर्म भी होता है।
दैवात्तद्वन्धमायाति कथंचित्कस्यचित्क्वचित् ।
अस्ति तस्योदयस्तावन्न स्यात्संक्रमणादि चेत् ॥ १०६३ ॥
अर्थ- दैवयोग से वह पंचेन्द्रिय तथा मानस कर्म, किसी प्रकार से, किसी जीव के, कभी बंध जाता है और यदि उसका संक्रमण आदि नहीं हो गया हो तो पहले उसका उदय होता है।
अथ तस्योदये हेतुरस्ति हेत्वन्तरं यथा 1
पर्याप्तं कर्म नामेति स्यादवश्यं सहोदयात् ॥ १०६४ ॥
अर्थ- और उसके उदय में दूसरे कर्म का उदय कारण है। वह इस प्रकार कि पर्याप्त नामकर्म का भी उसी समय उसके साथ ही उदय अवश्य होना चाहिये ।
सति तत्रोदये सिद्धाः स्वतो नोकर्मदर्गणाः ।
मनो देहेन्द्रियाकारं जायते तन्निमित्ततः ॥ १०६५ ॥
अर्थ - उनके उदय रहने पर उनके निमित्त से स्वयं सिद्ध नोकर्म वर्गणाएं स्वयं अपने कारण से मन, देह और इन्द्रियों के आकार रूप हो जाती हैं।
तेषां परिसमाप्तिश्चेज्जायते
दैवयोगतः ।
लब्धः स्वार्थोपयोचोषु बाह्यं हेतुर्जडेन्द्रियम् ॥ १०६६ ॥
अर्थ-यदि दैवयोग से उन (मन, शरीर और इन्द्रियों) की पूर्णता हो जावे तो लब्धि के स्वार्थोपयोग में बाह्य कारण जड़ इन्द्रियाँ हो जाती हैं।