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________________ ३१२ ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी सुख और ज्ञान के भेद तथा उनमें हेय-उपादेयता अस्ति ज्ञानं यथा सौरव्यमै न्द्रियं चाप्यतीन्द्रियम् । आय द्वयमनादेयं समादेयं परं द्वयम् ।। १०४५ ।। अर्थ-जैसे सुख इन्द्रियजन्य और अतीन्द्रिय है वैसे ही ज्ञान भी इन्द्रियजन्य और अतीन्द्रिय है। पहले दोनों (इन्द्रियजन्य सुख और इन्द्रियजन्य ज्ञान ) उपादेय नहीं हैं-हेय हैं किन्तु दूसरे दोनों ( अतीन्द्रिय सुख और अतीन्द्रिय ज्ञान) प्रवचनसारमाथा ५३) अध्यात्म का ऐसा नियम है कि इन्द्रिय सख या ज्ञान का वर्णन करना होता है तो प्रथम गुणस्थानवती अज्ञानी का करते हैं और अतीन्द्रिय सख या ज्ञान का वर्णन करना होता है तो केवली का करते हैं। श्रीप्रवचनसारजी में सब वर्णन इसी नियम के आधार पर है।] __ ऐन्द्रिय ज्ञान का वर्णन १०४६ से १०७५ तक ३० नून समानतो ज्ञानं एत्यर्थ परिणामि यत । व्याकुलं मोहसंपृक्तमर्थादुःरवमनर्थवत् ॥ १०४६॥ अर्थ-निश्चय से जो ज्ञान पर से (इन्द्रियादिक के निमित्त से) होता है और जो ज्ञान प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमनशील है, वह व्याकुल तथा { भाव ) मोह युक्त होता है। वास्तव में दुखरूप और निष्पयोजन है। भावार्थ-जान का काम जानना है किन्त जबतक जीव मिथ्या दष्टि है उसके इन्द्रियजान में मिथ्यात्व के कारण ऐसा दोष रहता है कि जिस पदार्थ को भी वह जानता है उसी में अपने पराये की कल्पना करता है, उसे लाभदायक या हानिकारक मानता है और लाभकारक कल्पित में राग और हानिकारक कल्पित में द्वेष प्रारम्भ कर देता है इसको ज्ञान का प्रति-अर्थ परिणमन कहते हैं । फिर उस राग-द्वेष-मोह से व्याकुल होकर दुःखी होने लगता है। इस प्रकार यह इन्द्रियज्ञान दुःख रूप है वास्तव में अनर्थकारक है और एक प्रकार से ज्ञान ही नहीं है। अतः यह हेय है तथा अतीन्द्रिय ज्ञान सब पदार्थों को एक ही समय में जानने के कारण तथा मोह रहित होने के कारण प्रत्यर्थ परिणमनशील नहीं है। अतः व्याकुल भी नहीं है। वहीं वास्तव में ज्ञान है। सुखरूप है तथा उपादेय है।(श्रीप्रवचनसार गा.४२, ५५ टीका) सिद्धं दुःरवत्तमस्योच्चैयाकुलत्वोपलब्धितः । ज्ञातशेषार्थसद्भावे तदबुभुत्साटिदर्शलात् ॥ १०४७ ॥ अर्थ-इस (इन्द्रियज्ञान) के दुःखपना सिद्ध है क्योंकि बहुत व्याकुलता की प्राप्ति है और जाने हुवे पदार्थों के अतिरिक्त अन्य पदार्थों का सद्भाव रहने पर उनके जानने की इच्छा आदि देखी जाती है। ___ भावार्थ-जिस पदार्थ को यह इन्द्रिय ज्ञान जानता है उस में तो राग-द्वेष-मोह की कल्पना से दुःखी होता है । यह तो पहले सूत्र में बता कर ही आये हैं। अब कहते हैं कि जिस पदार्थ को नहीं जानता है उसमें जानने की इच्छा से दुःखी होता है जैसे यह कार्य नामालूम कैसे होगा? इस मुकदमे का नामालूम क्या फैसला होगा ? इत्यादिक कल्पनाओं से न जाने हुवे पदार्थ में दुःखी होने लगता है। ( श्री प्रवचनसार गा. २३२ टीका) अतः यह दुःखरूप तथा हेय है किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान सकलप्रत्यक्ष होने के कारण किसी पदार्थ का जानना शेष न रहने से उसमें दुःख नहीं है अतः वह उपादेय है। आस्तां शेषार्थजिज्ञासोरज्ञानाद् ध्याकुलं मनः । उपयोगि सदर्थेषु ज्ञानं ताऽप्यसुखावहम् ॥ १०४८॥ अर्थ-शेष पदार्थों के जानने की इच्छा रखने वाले का अज्ञान से मन व्याकुल रहता है यह तो दूर ही रहो किन्तु जानने वाले पदार्थों में उपयोगी ज्ञान भी दुःखदायक है । यह १०४६ में स्पष्ट कर आये हैं ] प्रमत्तं मोहयुक्तत्वानिकष्ट हेतुगौरवात् । व्युच्छिन्नं क्रमवर्तित्वात्कृच्छं चेहाद्युपक्रमात् ॥ १०४९ ॥ अर्थ-वह (इन्द्रियज्ञान) प्रमत्त है क्योंकि मोह से युक्त है। निकष्ट है क्योंकि अपनी उत्पनि में बहुत कारणों की अपेक्षा रखता है। व्युच्छिन्न है क्योंकि कभपूर्वक जानने वाला है। कृच्छ्र है क्योंकि ईहा-अवाय-आदि ज्ञानों के क्रमपूर्वक होता है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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