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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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अर्थ-यद्यपि किसी-किसी उस सम्यग्दृष्टि के ( अर्थात् जघन्य पदवर्ती सम्यग्दष्टि के) कर्म चेतना और कर्मफल में वह चेतना होती है। वास्तव में वह ज्ञानचेतना ही है।
भावार्थ-यद्यपि नीचे की दशा में किसी-किसी सम्यग्दृष्टि के कर्म चेतना और कर्मफल चेतना का अस्तित्व जरूर है किन्तु वास्तव में वह ज्ञान चेतना ही है। क्योंकि सम्माधि कार्मचेतना और काम नेटग का स्वामी नहीं है। कर्ता भोक्ता नहीं है-ज्ञाता है। और जो ज्ञाता होता है उसके ज्ञान चेतना ही कही जाती है कर्मचेतना और कर्मफल चेतना नहीं क्योंकि ( कारण अगले सूत्र में बताते हैं ) ( देखिये पूर्व श्लोक नं. ९७३)
चेतनायाः फलं बन्धस्तत्फले वाथ कर्मणि ।
रागाभावान्न बन्धोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना ॥ १०४yI अर्थ-कर्म में और उस (कर्म) के फल में रहने वाली चेतना का फल बन्ध है परन्तु इस सम्यग्दृष्टि के राग का अभाव होने से बन्ध नहीं होता इसलिये वह ज्ञानचेतना ही है।
भावार्थ-क्योंकि कर्मचेतना और कर्मफलचेतना का फल कर्म बन्ध है अतः जिस चेतना से कर्म बन्ध हो वही तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतना कही जायेगी किन्तु जिससे कर्मबन्ध न हो वह काहे की कर्मचेतना और कर्मफल चेतना। वह तो ज्ञान चेतना ही है। बन्ध वास्तव में बहिर भोगों के संयोग मात्र से नहीं होता किन्तु उन भोगों में एकत्वबुद्धि अर्थात् उन्हें ही आत्मा का स्वरूप समझने से होता है और उसका ज्ञानी के अभाव है। अज्ञानी जगत् की बहिर दृष्टि है। यह ज्ञानी के भोगों का संयोग मात्र देखकर उसके भोगने की इच्छा और उसे ही उनका कर्ता-भोक्ता सम की बात उसकी समझ में नहीं आती। वास्तव में ज्ञानी की बात ज्ञानी ही जाने वह शब्द में नहीं आती। और अज्ञानी ज्ञानी के भाव को नहीं जान सकता वह तो उसे अपने ही पैमाने से नापता है।
प्रमाण-सूत्र १०२६ से १०४४ तक सब विषय ग्रन्थकारने श्रीसमयसारजी गा. १९७ से २२७ तक तथा उनके कलशों पर से लिया है। वहाँ पर यह विषय कलश नं. १५३ पर इन शब्दों में समाप्त हुआ है। सोनगढ़ समयसार पन्ना ३३७ ।
त्यतं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किंत्तस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मातशेनापतेत् । सरिमन्नापतिते त्वकंपपरमज्ञानस्वभावे स्थितो
ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ॥ १५३ 11 अर्थ-जिसने कर्म का फल छोड़ दिया है वह कर्म करता है, ऐसी प्रतीति तो हम नहीं कर सकते किन्तु वहाँ इतना विशेष है कि-उसे (ज्ञानी को) भी किसी कारण के कोई ऐसा कर्म अवशता से ( उसके वश बिना) आ पड़ता है। उसके आ पड़ने पर भी, जो अकम्प परम ज्ञानस्वभाव में स्थित है, ऐसा ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ?
भावार्थ-ज्ञानी के परवशता से कर्म आ पड़ता है तो भी वह ज्ञान से चलायमान नहीं है अचलायमान वह ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ? ज्ञानी की बात ज्ञानी ही जानता है। ज्ञानी के परिणामों को जानने की सामर्थ्य अज्ञानी की नहीं है।
अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर ऊपर के सभीज्ञानी ही समझना चाहिये। उनमें से अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरत सम्यग्दृष्टि और आहार-विहार करते हुवे मुनियों के बाह्य क्रियाकर्म होते हैं, तथापि ज्ञानस्वभाव से अचलित होने के कारण निश्चय से वे, बाहा क्रियाकर्म के कर्ता नहीं हैं, ज्ञान के ही कर्ता हैं। अन्तरंग मिथ्यात्व के अभाव से तथा यथासंभव कषाय के अभाव से उनके परिणाम उचल हैं। उस उचलता को ज्ञानी ही जानते हैं, मिथ्यादृष्टि उस उज्वलता को नहीं जानते। मिथ्यादष्टि बहिरात्मा हैं. वे बाहर से ही भला-बरा मानते हैं। अन्तरात्मा की गति को बहिरात्मा क्या जाने?
अगली भूमिका-यहाँ तक यह सिद्ध किया है कि सम्यग्दृष्टि की विषयसुख में हेय बुद्धि है। उसकी अतीन्द्रिय सुख में उपादेयबुद्धि है यह आगे १११३ से ११३८ तक सिद्ध करेंगे। अब यह समझाते हैं कि आत्मा का स्वभाव ज्ञान है। अतः सम्यग्दृष्टि की स्वाभाविक (अतीन्द्रिय) ज्ञान में रुचि है। ऐन्द्रिय ज्ञान में भी उसकी रुचि नहीं है। क्यों नहीं है इसके लिये इन्द्रिय ज्ञान का निकृष्ट स्वरूप तथा वह दोषों का स्थान है यह भी दिखलाते है: