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________________ ३१० ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी मेरा मरण हो, पर सब कुछ होता ही है। इसलिये इच्छा के अनकल ही बहिरंग क्रिया हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। भाई दर्शनमोह राग के अभाव के कारण विषय अभिलाषा ता खत्म होगई है केवल चारित्र में राग रहने के कारण न चाहते हुये भी अभी पर्याय अटकती है और बहिरंग क्रिया दीखती है। व्यापीडितो जनः कश्चित्कुर्वाणो रुकप्रतिक्रियाम् । तदात्ते रुप लेच्छेतु का कथा रुकृपुनर्भवे ॥ १०३९।। अर्थ-जैसे कोई रोगी पुरुष रोग की प्रतिक्रिया ( इलाज) करता हवा भी उस रोग अवस्था में रोग अ था में रोग अवस्था को नहीं चाहता है फिर रोग के पुनः होने (की इच्छा) के बारे में कहना ही क्या ? भावार्थ-अब आचार्य एक दृष्टान्त देकर समझाते हैं जिस प्रकार एक रोगी है। रोग को बुरा जानता है। उसको दूर करने का इलाज भी करता है। क्या यह कहा जा सकता है कि वह पुनः रोग की उत्पत्ति चाहता होगा। कदापि नहीं। कर्मणा पीडितो ज्ञानी कुर्वाण: कर्मजां क्रियां । नेच्छेत् कर्मपदं किंचित् साभिलाषः कुतो नयात् ॥ १०४०॥ र्थ-उसी प्रकार कर्म के द्वारा पीडित जानीकर्मजन्य क्रिया को करता हवा भी किसी भी कर्म पद को नहीं चाहता है तो फिर वह इन्द्रियों के विषयों का अभिलाषी किस न्याय से कहा जा सकता है। भावार्थ-ज्ञानी को निश्चय नय द्वारा अपने शुद्ध स्वभाव का अर्थात् शुद्ध जीवास्तिकायका भिन्न ज्ञान है और कर्मज संयोगी पदार्थ का भित्र ज्ञान है क्योंकि वह भेद विज्ञान को पा चुका है। अब वह केवल अपने शुद्ध तत्त्व को ही चाहता है और शेष संयोगी किसी भी परवस्तु या भाव को नहीं चाहता । ना चाहने पर भी जब तक पूर्वबद्ध कर्मों का उदय है तब तक जैसे केवली में उदयज क्रिया बिना इच्छा के हो-होकर खिर जाती है उसी प्रकार इसमें भी चारित्रमोह की क्रिया हो-होकर खिर रही है किन्तु वह उसे चाहता नहीं है। फिर आगे होने की इच्छा का होना तो रहा ही कहाँ? नासिक्दोऽनिच्छतस्य कर्म तरयामयात्मनः । वेदनायाः प्रतीकारो न स्याद् भोगादिहेतुकः || १०५१।। अर्थ-कर्म को नहीं चाहने वाले उस सम्यग्दृष्टि के (वेदना का प्रतीकार) असिद्ध नहीं है क्योंकि सरागी उस सम्यग्दृष्टि के वेदना का प्रतीकार नवीन भोगादि के उत्पन्न करने में कारण नहीं कहा जा सकता । भावार्थ-उसी प्रकार ज्ञानी इन्द्रिय विषयों को रोगवत् समझता है। रोग नहीं सहा जाता है तो इलाजवत् कुछ रमता भी है पर क्या यह कहा जा सकता है कि वह पुनः इस दुःख उत्पत्ति की इच्छा करता होगा कदापि नहीं। वर्तमान दुःख न सह सकने के कारण से इलाजवत् रमते हुवे को देख कर यह व्याप्ति नहीं लगाई जा सकती कि वह आगामी । विषयों को चाहता भी है। सम्यग्दृष्टिरसौ भोगान सेवमानोऽप्यसेवकः । नीरागस्य न रागाय काकामकृतं यतः ॥ १०४२ ॥ अर्थ-वह सम्यग्दृष्टि भोगों को भोगता हुवा भी नहीं भोगने वाला है क्योंकि राग रहित जीव के बिना इच्छा के किया गया कर्म राग के लिये नहीं होता है। भावार्थ-केवली भगवान में उठना, बैठना, चलना, उपदेश देना आदि बहिरंग औदयिक कर्मज क्रियाएं तो होती ही हैं पर उनके रागरहित अवस्था होने से वे उन क्रियाओं के होने पर भी अकर्ता हैं। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के चारित्र मोहवश भोगों की संयोग क्रिया होते हुवे भी वह उनका अभोक्ता है क्योंकि केवली में दोनों प्रकार के रागभाव का अभाव है और इसके दर्शनमोह का अभाव है। दर्शनमोह के अभाव से इच्छा का अभाव हो जाता है, जीव राग रहित हो जाता है और उस वीतरागी के भोग भोग के लिये या राग के लिये या कर्मबन्ध के लिये नहीं होते (श्रीसमयसार गा. १९७) अस्ति तस्यापि सदृष्टेः कस्यचित्कर्मचेतना । अपि कर्मफले सा स्याटर्थतो ज्ञानचेतना || १०४३॥
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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