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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ-द्रव्य अनन्त गुणों का समूह है। इसलिये जितने भी द्रव्य के प्रदेश हैं सब में अनन्त गुणों का अंश है। उन गुणों सहित जो प्रदेश हैं उन्हीं की मिलकर द्रव्य संज्ञा है। गणों की विशेष मंज्ञा है।
तेषामात्मा देशो जहि ते देशात्पृथक्त्वसत्ताकाः।
__ नहि देशे हि विशेषाः किन्तु विशेबैश्च तादृशो देशः ॥ ३६॥ अर्थ-उन गुणों का आत्मा ( समूह) ही देश ( अखण्ड-द्रव्य) है। वे गुण देश से भिन्न अपनी सत्ता नहीं रखते हैं और ऐसा भी नहीं कह सकते कि देश में गुण (विशेष) रहते हैं किन्तु उन विशेषों (गुणों) के मेल से ही वह देश कहलाता है।
भावार्थ-नैयायिक दर्शनवाले गुणों की सत्ता भिन्न मानते हैं और द्रव्य की सत्ता भिन्न मानते हैं। द्रव्य को गुणों का आधार बतलाते हैं परन्तु जैन सिद्धान्त ऐसा नहीं मानता किन्तु उन गुणों के समूह को ही देश मानता है और उन गुणों की द्रव्य से भिन्न सत्ता भी नहीं स्वीकार करता है। ऐसा भी नहीं है कि द्रव्य आधार है और गुण आधेय रूप से द्रव्य में रहते हैं, किन्तु उन गुणों के समुदाय से ही यह पिण्ड द्रव्य संज्ञा पाता है।
अत्रापि च संदृष्टिः शुक्लादीनामियं तनुस्तन्तुः ।
नहि तन्तौ शुक्लाद्याः किन्तु सिलाद्यैश्च तादृशस्तन्तुः ॥ ४० ॥ अर्थ-गुण और गुणी में अभेद है, इसी विषय में तन्तु (डोरे ) का दृष्टांत है। शुक्ल गुण आदि का शरीर ही तन्तु है (शुक्लादि गुणों को छोड़कर और कोई वस्तु तन्तु नहीं है ) और न ऐसा ही कहा जा सकता है कि तन्तु में शुक्लादि गुण रहते हैं किन्तु शुजलादि गुणों के एकत्रित होने से ही बह तन्तु बना है।
भावार्थ-शुक्लादि गुणों का समूह ही डोरा कहलाता है। जिस प्रकार डोरा और सफेदी अभित्र है उसी प्रकार द्रव्य और गुण भी अभिन्न हैं। जिस प्रकार डोरा, सफेदी आदि से पृथक् वस्तु नहीं है उसी प्रकार द्रव्य भी गुणों से पृथक् चीज़ नहीं है।
शंका अथ चेलिवन्नो देशो भिन्ना देशाश्रिता विशेषाश्च ।
तेषामिह संयोगाद्व्यं दण्डीव दण्डयोगादरा ॥ १ ॥ अर्थ-यदि देश को भिन्न समझा जाय और देश के आश्रित रहने वाले विशेषों को भिन्न समझा जाय तथा उन सब के संयोग से द्रव्य कहलाने लगे। जिस प्रकार पुरुष भिन है, दण्ड ( डंडा ) भिन्न है, दोनों के संयोग से दण्डी कहलाने लगता है तो क्या हानि है?
समाधान ४२ से ४५ तक नैवं हि सर्वसङ्करदोषत्वाद्वा सुसिद्धदृष्टान्तात् ।
तक्तिं चेतजयोगादचेतनं चेतनं न स्यात |२|| अर्थ-उपर्युक्त आशंका ठीक नहीं है। देश को भिन्न और गुणों को देशाश्रित भिन्न स्वीकार करने से सर्व संकर दोष आवेगा। यह बात सुघटित दृष्टान्त द्वारा प्रसिद्ध है। गुणों को भिन्न मानने से क्या चेतना गुण के सम्बन्ध से अचेतन पदार्थ चेतन (जीव) नहीं हो जायेगा?
भावार्थ-जब गुणों को द्रव्य से पृथक् स्वीकार किया जायेगा तो ऐसी अवस्था में गुण स्वतन्त्र होकर कभी किसी से और कभी किसी से सम्बन्धित हो सकते है। चेतना गुण को यदि जीव का गुण न मान कर एक स्वतन्त्र पदार्थ माना जाय तो वह जिस प्रकार जीव में रहता है उसी प्रकार कभी अजीव (जड) पदार्थ में भी रह जायगा। उस अवस्थ अजीव भी जीव कहलाने लगेगा। फिर पदार्थों का नियम ही नहीं रह सकेगा।कोई पदार्थ किसी रूप हो जायगा। इसलिये द्रव्य से गुणों को भित्र सत्ता वाला मानना सर्वथा मिथ्या है।