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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
अथवा बिना विशेषैः प्रदेशसत्वं कथं प्रमीयेत ।
अपि चान्तरेण देशैर्विशेषलक्ष्मावलक्ष्यते च कथम् ॥४॥ अर्थ- दूसरी बात यह भी है कि बिना गुणों के द्रव्य के प्रदेशों की सत्ता ही नहीं जानी जा सकती और बिना प्रदेशों के गुण भी नहीं जाने जा सकते।।
भावार्थ-गुण समूह ही प्रदेश हैं। बिना समुदाय के समुदायी नहीं रह सकता और बिना समुदायी के समुदाय नहीं रह सकता, दोनों के बिना एक भी नहीं रह सकता अथवा शब्दान्तर में ऐसा कहना चाहिये कि दोनों एक ही बात हैं।
अथ चैतयो क्त्वे हठादहेतोश्च मन्यमानेऽपि ॥ कथमिव गुणगुणिभावः प्रमायतसत्समाचार
आणिभाव: प्रमीयते सत्समानत्वात् ॥४४॥ अर्थ-यदि हठपूर्वक बिना किसी हेतु के गुण और गुणी भिन्न-भिन्न सत्ता वाले ही माने जावें तो ऐसी अवस्था में दोनों की सत्ता समान होगी। सत्ता की समानता में "यह गुण है और यह गुणी है" यह कैसे जाना जा सकता है ?
भावार्थ-जब गुण समुदाय को द्रव्य कहा जाता है तब तो समुदाय को गुणी और समुदायी को गुण कहते हैं परन्तु गुण और गुणी कोभिन्न मानने पर दोनों ही समान होंगे। उस समानता में किस को गुण कहा जाय और किसको गुणी कहा जाय ? गुण-गुणी का अन्तर ही नहीं प्रतीत होगा।
तरमादिदमनवा देशविशेषास्तु निर्विशेषारते।
गुणसंज्ञकाः कथंचित्परिणतिरूपाः पुनः क्षणं यावल ॥४५॥ अर्थ-इसलिये यह बात निर्दोष सिद्ध है कि देश-विशेष ही गुण कहलाते हैं। गुणों में गुण नहीं रहते हैं। वे गुण प्रतिक्षण परिणमनशील हैं ( परन्तु सर्वथा विनाशी नहीं हैं।)
शंका एकत्तं गुणगुणिनोः साध्य हेतोस्तयोरजन्यत्वात् ।
तदपि द्वैतमित स्यात् किं तत्र निबन्धन चितिचेत् ॥४६॥ अर्थ-गुण, गुणी दोनों ही एक हैं क्योंकि वे दोनों ही भिन्न सत्ता वाले नहीं हैं। यहाँ पर अभिन्न सत्ता रूप हेतु से गुण-गुणी में एकपना सिद्ध किया जाता है, फिर भी क्या कारण है कि अखण्ड पिण्ड होने पर भी द्रव्य में द्वैतभावसा प्रतीत होता है?
समाधान ४७ से १३ तक यत्किञ्चिदस्ति वस्तु स्वतः स्वभावे स्थित स्वभावश्च ।
अविनाभावी नियमाद्विवक्षितो भेटकर्ता स्यात् ॥४७॥ अर्थ-जो कोई भी वस्तु है वह अपने स्वभाव (गुण-स्वरूप) में स्थित है और वह स्वभाव भी निश्चय से उस स्वभावी ( वस्तु) से अविनाभावी-अभिन्न है परन्तु विवक्षा वश भिन्न समझा जाता है।
भावार्थ- यद्यपि स्वभाव,स्वभावी दोनों ही अभित्र है तथापि अपेक्षा कथन से स्वभाव और स्वभावी में भेद समझा जाता है, वास्तव में भेद नहीं है।
शक्तिलक्ष्मविशेषो धर्मो रूपं गुणः स्वभावश्च ।
प्रकति : शील चाकतिरेकार्थवाचका अमी शब्दा: ॥४८॥ अर्थ-शक्ति, लक्ष्म, विशेष, धर्म,रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील,आकृति-ये सभी शब्द एक अर्थ के कहने वाले हैं ( सभी नाम गुण के हैं।)
देशस्यका शक्तिर्या काचित् सा न शक्तिरन्या स्यात् ।
क्रमतो वितर्यमाणा भवन्त्यनन्ताश्च शक्तयो व्यक्ताः ॥४९॥ ____अर्थ-देश की कोई भी एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप नहीं होती। इसी प्रकार क्रम से प्रत्येक शक्ति के विषय में विचार करने पर भिन्न-भिन्न अनन्त शक्तियां स्पष्ट प्रतीत होती हैं।