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________________ द्वितीय खण्ड /चौथी पुस्तक २९९ शिष्य-गुरुदेव ! कुछ-कुछ । गुरु- भाई ! यही बात है जो अनादि काल से इस जीव ने नहीं समझी है। द्वादशांग का सार यही है। सम्यक्त्व का विषय यही है। जो कुछ है यही है। इसके बिना सब आगम ज्ञान तथा क्रिया कांड निरर्थक है। अगर इसको समझ लोगे तो भवसागर से बेड़ा पार हो जायगा। देखो श्री समयसार जी गाथा २०४ को संस्कृत टीका अन्तिम ३ लाइन । उस में कहा है: - इसलिये जिस में समस्त भेद दूर हुवे हैं ऐसे आत्मस्वभावभूत एक ज्ञान का ही अवलम्बन करना चाहिये। इसके अवलम्बन से ही निजपद की प्राप्ति होती है, श्रान्ति का नाश होता है, आत्मा का लाभ होता है, और अनात्मा का परिहार सिद्ध होता है; (ऐसा होने से ) कर्म से मूच्छित नहीं होता, राग-द्वेष-मोह उत्पन्न नहीं होते, (राग-द्वेष- मोह के बिना ) पुनः कर्मास्रव नहीं होता ( आस्त्रव के बिना) पुनः कर्म बन्ध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्म छूट कर निर्जरा को प्राप्त हो जाता है, समस्त कर्मों का अभाव होने से साक्षात मोक्ष होता है ऐसे ज्ञान के अवलम्बन का ऐसा माहात्मय है। भाव यह है कि सब भेदों को गौण करके, एक ज्ञान सामान्य का अवलम्बन लेकर आत्मा को ध्यावना; इसी से सर्वसिद्धि होती है। शिष्य- इसकी विशेष जानकारी का उपाय क्या है ? गुरु- सत्समागम और शास्त्रस्वाध्याय । शिष्य-प्रभु ! किस आगम में इस मार्मिक तत्व का वर्णन है ? - गुरु सारी श्री नियमसार टीका इसी बात से भरपूर है। उसमें इसको कारणसमयसार कह कर इसी के गीत गाये हैं। श्री समयसारजी में भी इस ही की मुख्यता है। तुम उन्हें टीका सहित सत्समागम के आश्रय से अभ्यास करो तो अवश्य इस विषय में निःशल्य होकर भेद विज्ञान से शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होगी। प्रश्न- सामान्य के नामान्तर बताओ ? उत्तर - चेतन, चेतना, गुण, द्रव्य, ज्ञायक, सामान्य, शुद्ध, पारिणामिक, परम पारिणामिक, कारण परमात्मा, स्वतः सिद्ध, ज्ञान, सामान्यज्ञान, जीव, सामान्य जीव, स्वभाव, अन्तरतत्व, जीवत्वभाव, स्वभाव, अन्वय, सत्, तत्त्व आदि अनेक नाम हैं। सातवां अवान्तर अधिकार सम्यग्दृष्टि के ऐन्द्रिय सुख तथा ऐन्द्रिय ज्ञान में हेयबुद्धि है और अतीन्द्रिय ज्ञान तथा अतीन्द्रिय सुख में उपादेयबुद्धि है। १००६ से ११४२ तक १३७ विषय परिचय - पर्यायदृष्टि से जीवतत्त्व के निरूपण नामा छटे अवान्तर अधिकार में यह बताया है कि जीव का लक्षण चेतना है। क्योंकि वह चेतना, ज्ञान बेतना और अज्ञान चेतना के भेद से दो प्रकार की है अतः उसके स्वामी भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दो प्रकार के जीव त्रिलोक में है। उनमें मिध्यादृष्टि सारा जगत अपने को राग-द्वेष-मोह तथा सुखदुःखमय अनुभव करता हुवा दुःख भोगता है और सम्यग्दृष्टि अपने को शुद्ध सामान्य ज्ञानरूप अनुभव करता हुवा अतीन्द्रिय सुख भोगता है। यह छठे अवान्तर अधिकार का सार है। मिध्यादृष्टि का विवेचन तो जितना उस अधिकार में किया है वह पर्याप्त है क्योंकि इस का अनुभव तो सारे जगत् को स्वयं प्रत्यक्ष ही है किन्तु यहाँ तो मिध्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि बनाने की बात है तथा जीवों को सम्यग्दृष्टि की दशा का परिज्ञान हो। वैसा बनने की इच्छा उत्पन्न हो, इस निकृष्ट दुःख को छोड़ कर उस अलौकिक सुख के भोगने की रुचि जागृत हो अतः सम्यग्दृष्टि की ही दशा का कुछ वर्णन इस अधिकार में करेंगे। इसमें क्या कहेंगे यह तो ऊपर शीर्षक से स्पष्ट ही है। क्योंकि हमें यह कहना है कि सम्यग्दृष्टि की विषयसुख में हेय बुद्धि है अतः पहले उस ऐन्द्रिय सुखाभास का घृणाजनक स्वरूप दिखायेंगे क्योंकि ऐसा नियम है कि 'बिन जाने ते दोष गुणन के कैसे तजिये गहिये" जब तक किसी वस्तु के दोषों का परिज्ञान नहीं होता तब तक उसमें बुद्धि नहीं होती है। अतः विषयों का स्वरूप क्या है। उन्हें सम्यग्दृष्टि कैसा समझता है, उसकी उनमें दुखरूप तथा बुद्धि क्यों है पहले इसका दिग्दर्शन १००६ से १०२५ तक २० सूत्रों द्वारा करेंगे ताकि जो भव्य आत्मा इनमें रुका
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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