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________________ २९८ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी ___ गुरु-तुम्हारी बात ठीक है किन्तु हमारा द्रव्य के टुकड़े करने का भाव नहीं है किन्तु बुद्धि में "पर"(विशेष) से भिन्न "स्व" (सामान्य) का दर्शन कराना है। शिष्य-किन्तु द्रव्य तो सामान्य विशेषात्मक ही रहेगा। गुरु-हाँ ! किन्तु सामान्यविशेषात्मक द्रव्य प्रमाण (ज्ञान) का विषय है। भेद विज्ञान सम्यक्त्व को उत्पन्न करने के लिये किया जाता है और सम्यक्त्व का विषय सामान्यविशेषात्मक वस्तु नहीं। मात्र सामान्य वस्तु ही है। शिष्य-तो क्या सम्यक्त्व खण्ड वस्तु ( अवस्तु) को पकड़ता है ? गुरु-भाई जैन धर्म कहीं सामान्य विशेष के भिन्न-भिन्न प्रदेश नहीं मानता किन्तु स्वरूप भेद मानता है। विशेष को गौण करके (दृष्टि से ओझल करके) सामान्य को लक्ष्य में लेकर देखो ऐसा हमारा भाव है। सम्यक्त्व प्रमाण ज्ञान का विषय नहीं है किन्तु शद्ध नय का विषय है और शद्ध नय वस्तु के सामान्य अंश पारिणामिक भाव स्वतः सिद्ध तत्व को पर से निरपेक्ष करके पकड़ती है किन्तु प्रमाण ज्ञान में वह सापेक्षता बनी रहती है। ज्ञान सविकल्पक है (भेदात्मक है)। दर्शन निर्विकल्पक है। शिष्य-तो क्या वह सामान्य कूटस्थ है ? गुरु-नहीं ! वह अपने स्वतः सिद्ध घटस्थानपतितहानिवृद्धि परिणाम से युक्त है जैसा धर्म द्रव्य । शिष्य-गुरुदेव! क्षमा करिये ! मैं अभी तक आपकी बात से सहमत नहीं, मुझे तो ऐसी वस्तु पकड़ में नहीं आती। क्या आप कोई आगम प्रमाण देकर यह बात सिद्ध कर सकते हैं कि क्षायिक भाव को भी आचार्यों ने परभाव से निरूपण किया है ? और केवल सामान्य अंश को ही सम्यक्त्व का विषय बताया है? गुरु-शाबाश ! जबतक अपनी आत्मा निःशल्य न हो तब तक कभी हो नहीं करनी चाहिये। तत्त्व में अंध श्रद्धा से काम नहीं चलता और न सम्यक्त्व ही होता है। प्रमाणरूप गाथा यह है। श्री नियमसार की शुद्धभावाधिकार गाथा नं. ४१ णो खइयभावठाणा णो रवयउवसमयसहावठाणा वा । ओदइयभावठाणा णो उनसमणे सहावठाणा वा ॥४१॥ न क्षायिकभावस्थानानि न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा । औदयिकभावरस्थानानि नोपशमरचभावस्थानानि वा ॥४१॥ स्थानो न क्षायिकभावके क्षायोपशमिक के भी नहीं । स्थानो न उपशमभावके कि उदयभाव भी हैं नहीं ॥४१॥ अर्थ-जीव के क्षायिकभाव के स्थान नहीं है, क्षायोपशमिक भाव के स्थान नहीं है। औदयिक भाव के स्थान नहीं है कि उपशमभाव के स्थान नहीं है। संस्कृत टीका का शीर्षक खास पढ़ने योग्य है। चतुर्णा विभावस्वभावानां स्वरूपकथनद्वारेण पंचमभावस्वरूपाख्यानमेतत् अर्थात् चार विभावरूपस्वभावों के स्वरूप कथन द्वारा पंचमभाव के स्वरूप का यह कथन है। श्री द्रव्यसंग्रह में कहा है अट्रचणाणदंसण सामण्णं जीवलवरचणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्ध पुण दंसणं णाणं ॥६॥ अर्थ-व्यवहार नय से आठ ज्ञान ( पर्यायें) और चार दर्शन ( पर्यायें) सामान्यरूप से ( साधारणतया) जीव का लक्षण कहा गया है; और निश्चय नय से शुद्ध ज्ञान और शुद्ध दर्शन जीव का लक्षण है। इसमें स्पष्ट केवलज्ञान और केवलदर्शन को व्यवहार अर्थात् परभाव कहा है। सामान्यदृष्टि से क्षायिक भावों को परभाव ही कहते हैं और नीचे की पंक्ति में स्पष्ट सामान्य (शुद्ध) ज्ञान दर्शन को निश्चय से जीव कहा है। बस जो बात हम आपको समझाना चाहते हैं वह उपर्युक्त दो सूत्रों में स्पष्ट है। क्या तुम्हारी संतुष्टि हुई।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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