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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
शिष्य-जैसी आज्ञा !
गुरु-जगत में दो प्रकार का तत्व होता है - एक सत् अहेतुक तत्व, दूसरा असत् अहेतुक तत्व । जो अनादि अनन्त है। स्वत: सिद्ध है । नित्य है। बिना किसी कारण के है वह सत् अहेतुक है और जो सादि सान्त है, पर से सिद्ध है, अनित्य है, किसी कारण से उत्पन्न हुआ है वह असत् सहेतुक तत्व है। स्वत: सिद्ध तत्त्व को जैनागम में पारिणामिक भाव, जीवत्व भाव, ज्ञायक भाव, सामान्य भाव, इत्यादिक अनेक नामों से कहा है और पर से सिद्धतत्व को विभाव भाव, अनित्य भाव, औदयिक, औपशमिक,क्षायोपशमिक, क्षायिक भाव कहा है। जो सत् अहेतुक तत्व है यह "स्व"है और जो असत् सहेतुक भाव है वह "पर" है। शिष्य-क्षायिक भाव (केवल ज्ञान) आत्मा का विशेष स्वभाव भाव है वह पर से सिद्ध नहीं है।
गुरु-जो चीजकों के निमित्त से होती है वह "पर से सिद्ध"है। क्षायिक भाव(केवल ज्ञान)कर्म (ज्ञानवरण) के क्षय से होता है अर्थात् उसे कर्म के अभाव की अपेक्षा है। अतः वह स्वतः सिद्ध नहीं है। स्वतः सिद्ध तो एक पारिणामिक भाव है।
शिष्य-पर से सिद्ध पदार्थ तो अनित्य होता है किन्तु क्षायिक भाव( केवल ज्ञान ) तो नित्य है। वह एक बार उत्पन्न होकर राग की तरह फिर नाश नहीं होता।
गुरु-यह बात नहीं है। क्षायिक भाव अनित्य ही है। वह समय-समय में नया-नया ही पैदा होती है। शिष्य-ऐसा प्रतीत तो नहीं होता ? गुरु-तो अच्छा बताओ क्षायिक भाव ( केवल ज्ञान ) गुण है या पर्याय । शिष्य--पर्याय ।
गुरु-तो तुमने तो स्वयं अपने मुख से ही स्वीकार कर लिया । पर्याय हमेशा क्षणिक अनित्य एक समय की ही होती है। जगत में कोई पर्याय नित्य नहीं है।
शिष्य-गुरुवर ! पर से सिद्ध पर्याय तो सादि सान्त होती है। केवल ज्ञान तो सादि अनन्त है।
गुरु-इसके उत्तर में पहली बात तो यह है कि इतना तो तुमने मान ही लिया है कि वह सादि अनन्त है। अनादि अनन्त नहीं। सत् अहेतुक चीज़ तो अनादि अनन्त होती है। दूसरी बात यह है कि क्षायिक भाव ( केवल ज्ञान) सादि अनन्त नहीं किन्तु सादि सान्त है।
शिष्य-यह किस तरह ? करणानुयोग पें तो उसको सादि अनन्त बतलाया है।
गुरु-करणानुयोग पर्याय को स्थूल ऋजसूत्रनय मे पकड़ता है। यह स्थूल ऋजुसूत्र का विषय है। सूक्ष्म ऋजुसूत्र एक समय की शुद्ध पर्याय को ही पकड़ता है। शिध्य-तो क्या करणानुयोग की बात गलत है ?
गुरु-नहीं ! बात यह है कि करणानुयोग का विषय पर तत्व है। द्रव्यानुयोग का विषय स्वतत्व है। पारिणामिक भाव को समझाना उसका काम नहीं। शिष्य-क्या इसका कोई दृष्टान्त भी है ?
गुरु-हाँ ! करणयानुयोग राग को स्थूल ऋजुसूत्र से विवेचन करके उसको एक बार की लम्बी स्थिति को पकड़ता है जबकि द्रव्यानुयोग राग को मात्र एक समय का तत्त्व ही स्वीकार करता है।
शिष्य-तो क्या केवल ज्ञान समय-समय में नया-नया उत्पन्न होता है? गुरु-हाँ, वास्तविक बात यही है । शिष्य-अच्छा अगर ऐसा ही मान लिया जाये तो क्षायिक भाव (केवल ज्ञान) के निकलने से द्रव्य का अभाव हो जायगा। विशेष के बिना सामान्य कैसा?