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________________ २९६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अब सामान्य तत्व का स्वरूप सरल शब्दों में एक लेख द्वारा समझाते हैं। इस सामान्य का आश्रय ही ज्ञानियों को रहता है जिसके आश्रय से सम्यक्त्व चारित्र यहाँ तक कि केवल ज्ञान तथा मोक्ष तक की प्राप्ति करते हैं: सामान्य विज्ञान शिष्य - सबसे पहला धर्म क्या है तथा उसकी प्राप्ति का क्या उपाय है ? गुरु- सबसे पहला धर्म अपनी आत्मा का जानना है तथा उसका उपाय भेद विज्ञान है। शिष्य-भेद विज्ञान का स्वरूप क्या है ? गुरु-भेद विज्ञान का स्वरूप श्रीकुन्दकुन्द आचार्यदेव ने श्री नियमसार जो गाथा नं. १०२ द्वारा निम्न रूप से निरूपण किया है। यह गाथा भाव पाहुड में नं. ५९, इष्टोपदेश में नं. २७, सामयिक पाठ में नं. १० तथा आराधनासार में नं. १०३ है । मूल गाथा एको मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्वणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्ते संजोगलक्खणा ॥ १०२ ॥ एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः । शेषा में बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ १०२ ॥ मेरा सुशास्वत एक दर्शनज्ञानलक्षण जीव है । बाकी सभी संयोगलक्षण भाव मुक्त से बाह्य है ॥ १०२ ॥ अर्थ- ज्ञानी विचारता है कि ज्ञान दर्शन जिसका लक्षण है ऐसा और शाश्वत (नित्य) ऐसा आत्मा है सो ही एक मेरा है। बाकी भाव हैं वह मुझसे बाह्य हैं। वह सब ही संयोग स्वरूप है। पर द्रव्य है। सार परमपारिणामिक एक त्रिकाली ज्ञायक जीव द्रव्य तो मैं हूँ। बाकी द्रव्यकर्म (ज्ञानावर्णादिक) नोकर्म (शरीरादिक) भावकर्म ( औदयिक औपशमिक क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भाव ) परद्रव्य हैं। इसी का नाम भेद विज्ञान है जो केवल ज्ञान ज्योति का उत्पादक है। व्याख्या- हे भव्य ! यह जो मनुष्य पर्याय है अर्थात् मनुष्य का शरीर है इसपर पहने हुवे कपड़े तथा संयोगी पदार्थ, गहना, स्त्री, पुत्र, पौत्र, माता-पिता, धन-धान्य, देश-कुटुम्ब इत्यादि तो प्रत्यक्ष इससे सब बाह्य हैं ही, इनमें तू " मैं पने की " ( अहंकार भाव ) तथा अपनेपने की ( भ्रमकार भाव ) बुद्धि छोड़। इनसे चित्र नग्न दिगम्बर मनुष्य शरीर को दृष्टि में ले। इसमें से औदारिक शरीर ( मन-वचन-काय छ: पर्याप्ति ४ प्राण ५ इन्द्रियाँ अर्थात् आहार वर्गणर, भाषा वर्गपा तथा मनो वर्गणा का बना हुआ सब कुछ ) को भिन्न कर। इसके बाद इसमें से तैजस वर्गणा के बने हुवे तैजस शरीर को भिन्न कर । तत्पश्चात् ज्ञानावर्णादिक आठ कर्मों से बने हुवे अर्थात् कार्मण वर्गणा से बने हुदे कार्मण शरीर को भिन्नकर। फिर मोहनीय के उदय में जुड़ने से उत्पन्न होने वाले रागादिक (मिथ्यात्व कोध मान माया लोभ हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा वेद ) विभाव भावों को भिन्न कर। उसके बाद आत्मा के एक-एक गुण के जो एक देश स्वभाव है उनको भिन्न कर जैसे ज्ञानगुण के पति श्रुत अवधि मनः पर्यय भाव, दर्शन गुण के चक्षु अचक्षु अवधि दर्शन भाव, श्रद्धा गुण के औपशमिक क्षायोपशनिक सम्यकत्व भाव, चारित्रगुण के संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, भाव इत्यादिक रूप से सब अनुजीवी गुणों की एक देश शुद्ध पर्यायों को भिन्न कर । उसके बाद ९ क्षायिक भावों को भी भिन्न कर इतना सब कुछ संयोगी पदार्थ है, पर द्रव्य है। अजीव तत्व है। बाह्य तत्व है पर वस्तु है। पुद्गल है । जीव के त्रिकाली स्वभाव के ऊपर तरने वाला परपदार्थ है। इस सब परमैटर को निकालने के बाद जो कुछ बचेगा वह शाश्वत एक जीव द्रव्य है जो "मैं" हूँ। बस इस ही का नाम भेद विज्ञान है। शिष्य-गुरुदेव आपने और जो कुछ भिन्न किया वह तो ठीक है किन्तु आपने तो क्षायिक भावों को जुदा करने को कहा है जो जीव का विशेष स्वभाव भाव है। इस को जुदा करने से तो वस्तु का ही नाश हो जायगा और विशेष के बिना सामान्य की श्रद्धा गधे के सींगवत निरर्थक हो जायगी । गुरु- शाबाश! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है। हम स्पष्ट समझायेंगे। तुम ध्यानपूर्वक सुनो। i Kiren
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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