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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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नहीं दिया है। आत्मा तो जैसे बर्फ का डला केवल बर्फ रूप है, घी का डला घी रूप है, उसी प्रकार वह मात्र ज्ञानज्ञान-ज्ञान रूप है। बस ज्ञानी अपने को मात्र ज्ञान घन ही देखता है। उस ज्ञान भाव में उदय जन्य बद्धस्पष्शदि भावों का अनुभव नहीं करता क्योंकि यह भाव ज्ञानस्वभाव के ऊपर तरते हैं, जैसाकि श्री समयसारजी के कलश नं.११ में कहा है। श्री पंचाध्यायी के इन सूत्रों का अर्थ वही है जो इस कलश का है:
न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुरमुपरितरंतोऽष्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समंतात
जगदपातमोहीभूय सम्यकस्तभावं ||११॥ अर्थ-हे जगत् के प्राणियो! इस सम्यक् स्वभाव का (ज्ञान मात्र का) अनुभव करो कि जहाँ ये बद्धस्पृष्टादिभाव स्पष्टतया उस भाव के ऊपर तरते हैं, तथापि वे (उसमें) प्रतिष्ठा नहीं पाते, क्योंकि द्रव्य स्वभाव तो नित्य है, एकरूप है, और यह भाव अनित्य है, अनेकरूप है। पर्यायें द्रव्य स्वभाव में प्रवेश नहीं करतीं, ऊपर ही रहती हैं। यह शुद्ध स्वभाव सर्व अवस्थाओं में प्रकाशमान है। ऐसे शुद्ध स्वभाव का, मोह रहित होकर जगत् अनुभव करे क्योंकि मोह कर्म के उदय से उत्पन्न मिथ्यात्वरूपी अज्ञान जहाँ तक रहता है, वहाँ तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता। इसी भाव का दिग्दर्शन हमने निम्न "हरिगीत" में कराया है:
"हारंगीत" अबदरगृष्ट - कमलजी के पत्रवत जो द्रव्यकर्म से बद्ध ना ।
फर्सित नहीं देहादि नो कर्मों से मेरा आत्मा ॥ अनज्य – मनुष्यादि पर्यायों से भी होता अनेका रूप ना ।
ज्यूं मिट्टि निज स्वभाव से घट आदि पर्यायोही ना ॥ जियल - ज्ञान के अविभाग से भी भेट को वो प्राप्त ना ।
समुद निज स्वभाव से लहरों में घटता-बढ़ता ना ॥ अतिशेष - सोजे में जैसे पीला चिकना भारी पन का भेद ना ।
मम आत्मा में उस तरह गुण भेद होता प्राप्त ना ॥ असंयुक्त - रचभात से तो जल कभी अग्नि से गर्माता नहीं ।
त्यों बोध बीज स्वभाव से वो रानामय होता नहीं ॥ ऐसे अपने आत्म की अनुभूति हो भूतार्थ से ।
शुद्ध नय कहवाय दो रे शिष्य यूं तू जान ले ॥ आवश्यक सूचना-सामान्य स्वरूप की विशेष जानकारी के लिये श्री नियमसारजी शद्ध भाव अधिकार गाथा ३८ से ५०तक का टीका सहित अभ्यास करें। यह विषय सूक्ष्म किन्त मोक्षमार्ग का प्राण है। विशेषतया यह गाथा खास विचारने योग्य है
जीव का सामान्य स्वरूप अरसमरूतमगंध असतं घेदणागुणमसहूँ ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिसंठाणं ॥ अर्थ-हे भव्य तु जीव को १-रसरहित, २-रूपरहित,३-गंध रहित,४-अव्यक्त अर्थात इन्द्रियगोचर नहीं ऐसा, ५-चेतना जिसका गुण है ऐसा, ६-शब्दरहित, ७-किसी चिह्न से ग्रहण न होने वाला, 4-और जिसका कोई आकार नहीं कहा जाता, ऐसा जान। यह गाथा श्री समयसारजी में नं.४९ है, श्री प्रवचनसारजी में नं.१७२ है, श्री पंचास्तिकाय में नं. १२७ है। श्री नियमसारजी में नं. ४६ है तथा श्री भावपाहुड़ में नं.६४ है। जहाँ-जहाँ जीव और अजीव के भेद विज्ञान की आवश्यकता पड़ी वहाँ-वहाँ श्रीकुन्दकुन्द भगवान ने अक्षरश: इसी गाथा का प्रयोग किया है। यह जीव के सामान्य स्वरूप की प्रकाशक है जो सम्यक्त्व का विषय है। खास समझने योग्य है।