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________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक २८९ है। ज्ञानी का पर में एकत्वभाव, स्वामित्व भाव, कर्तृत्व भोक्तृत्व भाव बिल्कुल खत्म हो चुका है। वह जानता है कि उपादान दृष्टि से वह सब किया उस-उस समय की स्वतन्त्र योग्यता से हो रही है और निमित्त की दृष्टि से अघाति कर्मों का कार्य है। मेरा चेतन अमूर्तिक द्रव्य और उसका चेतन परिणमन इनसे सर्वथा भिन्न है। करना तो दरकिनार; मैं छ भी नहीं सकता। शास्त्रीय भाषा में अज्ञानी की वे क्रियायें अज्ञानभावपूर्वक होती हैं अत: बंध की कारण है (वास्तव में वह अज्ञान भाव बंध का कारण है ) और ज्ञानी की वे क्रियायें ज्ञानभावपूर्वक होती हैं अत: बंध का कारण नहीं है ( वास्तव में वह ज्ञान भाव बंध का कारण नहीं है किन्तु संवर निर्जरा का कारण है ।) आस्तां न बन्धहेतुः स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा किया । चित्र रामको जिरानी व कर्मणां || ९९८ ।। अर्थ-ज्ञानियों की कर्मोदय से उत्पन्न होने वाली कियाबंध का कारण नहीं होती है यह तो दूर ही रहो किन्तु आश्चर्य तो यह है कि उनकी जो भी क्रिया है वह सब (क्रिया) पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के लिये ही होती है क्योंकि ( कारण आगे सूत्र ९९९ में वर्णन किया है। भावार्थ-इस सूत्र में आचार्य देव ने सामान्य के वेदन का चमत्कारिक फल दिखलाया है कि सामान्य के वेदन वालों के बहिरंग क्रियाओं से - कर्मजक्रियाओं से आगामी बंध तो दूर रहो उस के तो उलटा ज्ञान और वैराग्य की शक्ति के बल से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा हर समय होती है और मोक्ष महल निकट आता जा रहा है। ऐसा क्यों है इसका कारण दो सूत्रों में बतलाते हैं। क्योंकि यरमाज्ज्ञानमया भाता ज्ञानिना ज्ञाननिवृताःr अज्ञानमयभावानां नावकाशः सुद्धाष्टिषु ॥२९॥ ज्ञानमय भाव ज्ञान निर्मित ही होते हैं इसलिये सम्यग्दृष्टियों की आत्माओं में अज्ञानमय भावों का अवकाश स्थान सत्ता नहीं है। भावार्थ-आचार्य एक आश्चर्यकारक नियम बताते हैं कि सामान्य का वेदन करने वालों का प्रत्येक भाव ज्ञान जाति को उलंघन नहीं करता। अत: उनके बंध नहीं होता और संवर निर्जरा ही होती है। इसी नियम की नीचे की पंक्ति में नास्ति से और दृढ़ करते हैं कि ज्ञानी के कृष्णा लेश्या होने पर भी पांचों इन्द्रियों के भोग होने पर भी उसका कोई भाव अज्ञान जाति का नहीं है और न हो सकता है क्योंकि अज्ञान भाव के जन्म का पर से या भोगों से संबन्ध नहीं है किन्तु अपने को विशेषरूप अनुभव करने से सम्बन्ध है और वह ज्ञानी के होता ही नहीं है। क्या कमाल का प्रकृति का नियम है। कितना आश्चर्यकारक है। पर हो, आज्ञानियों को आश्चर्य लगता है। ज्ञानी यथार्थ जानते हैं क्योंकि? वैराग्यं परमोपेक्षा ज्ञानं स्वानुभवः स्वयम् । तद् द्वयं ज्ञानिजो लक्ष्य जीवन्मुक्तः स एव च ॥ 9000 ।। अर्थ-परम उपेक्षा रूप वैराग्य और स्वसंवेदन रूप प्रत्यक्ष ज्ञान - ये दोनों ज्ञानी के लक्षण है और वह जीवनमुक्त है। भावार्थ-(१) परम उपेक्षा वैराग्य और स्वानुभव ज्ञान सामान्य के संवेदन को ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं और उसके अविनाभावी चारित्र गुण में अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव से जो पर पदार्थों के प्रति परम उपेक्षा भाव उत्पन्न हो जाता है उसको वैराग्य कहते हैं। यह ज्ञान और वैराग्य ही ज्ञानी का लक्षण है जो अनन्त काल से वद्ध कर्मों को अल्प समय में ही काट देता है और आगे बंध नहीं होने देता। इस शक्ति से पूर्व बद्ध कर्म अपना फल दे-देकर निजीर्ण होते रहते हैं। और आत्मा हलका-फुलका होकर शीघ्र अपने पूर्ण रूप को प्राप्त कर लेता है। (२) जीवनमुक्त-परवस्तु को कर और भोग, तो ज्ञानी कि अज्ञानी कोई भी नहीं सकता, पर अनादिकाल से यह जीव अपने अज्ञान के कारण अपने को सदा पर काकर्ता-भोक्ता ही मानता है। और काकतालीय न्यायवत्क्योंकि कभी *श्री समयसारजी गाथा १२६, १२७, १२८, १२९,१३०, १३१ तथा कलश नं.६७ से उद्धत ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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