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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अर्थात् अज्ञानरूप ही उत्पन्न होंगे। ज्ञानभाव तो सामान्य के वेदन से ही प्रारम्भ होते हैं चाहे वह कुछ न पढ़ा हुवा नारकी या तिर्येच क्यों न । इससे सिद्ध होता है कि मिध्यादृष्टियों के एक अज्ञान चेतना ही होती है और उनके सब भाव अज्ञान जाति के ही होते हैं।
सिद्धमेतावता
यावच्छुद्धोपलब्धिरात्मनः । 'सम्यक्त्वं तावदेवास्ति तावती ज्ञानचेतना ॥ ९९५ ॥
अर्थ - इससे यह भी सिद्ध हो गया कि जब तक आत्मा के शुद्धोपलब्धि है तब तक ही सम्यक्त्व है और तभी तक ज्ञान चेतना है। यह सब अविनाभाव है।
भावार्थ - इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि जब तक जीव सामान्य का अनुभव करेगा तभी तक वह ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है, तभी तक उसके शुद्धात्मोपलब्धि अर्थात् ज्ञान चेतना है। यदि वह सामान्य का अनुभव छोड़ देगा तो तुरन्त विशेष का अनुभव होने से अज्ञानी हो जायेगा। वस्तु स्वभाव में किसी की रियायत नहीं है। जहाँ आत्मा होगी वहाँ वेदन तो होगा ही चाहे सामन्य का हो या विशेष का । (देखिये श्री समयसारजी गाथा १७९, १८० तथा कलश नं. १२०, १२१ ) एक: सम्यग्दृगात्माऽसौ केवलं ज्ञानवानिह ।
ततो मिथ्यादृशः सर्वे नित्यमज्ञानिनो मताः ॥ ९९६ ॥ अर्थ - इस जगत में केवल वह एक सम्यग्दृष्टि जीव हो ज्ञानी है उसके अतिरिक्त सजीव मिया और नित्य अज्ञानी माने गये हैं ।
भावार्थ-आचार्य वस्तुस्वभाव का नियम बताते हैं कि बस एक सामान्य का अनुभव करने वाला ही तीन काल और तीन लोक में सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है। शेष सब अज्ञानी हैं चाहे वह ग्यारह अंग तक पढ़कर परलक्षी ज्ञान का धुरंधर विद्वान् ही क्यों न हो जाये या महाबतों को धारण करके मुनि संज्ञा का धारी क्यों न हो जाये उससे मोक्ष मार्ग में कुछ साध्य की सिद्धि नहीं, केवल मान का पोषण है।
ज्ञान और वैराग्य की शक्ति के कारण ज्ञानियों की कोई भी क्रिया बंध का कारण नहीं है ९९७ से १००० तक चार इकट्ठे
क्रिया साधारणी वृत्तिर्ज्ञानिनोऽज्ञानिनस्तथा । अज्ञानिनः क्रिया बन्धहेतुर्न ज्ञानिनः क्वचित् ॥ ९२७ ॥
अर्थ - ज्ञानी और अज्ञानी की क्रिया साधारण (सामान्यरूप से) एक जैसी होती है किन्तु अज्ञानी की क्रिया बन्ध का कारण होती है और ज्ञानी की क्रिया किसी अवस्था में भी बंध की कारण नहीं है।
भावार्थ - यहाँ एक रहस्य की बात बताई है कि बहिरंग मन, वचन, काय की क्रिया से ज्ञानी का कुछ सम्बन्ध नहीं है। वह तो कर्म के उदद्यानुसार जैसे चलती चले। ज्ञानी तो सामान्य के वेदन के कारण बन्ध रहित ही होता है। उसके उन वहिरंग क्रियाओं से कोई बंध नहीं होता किन्तु सामान्य के वेदन से निरन्तर संवर निर्जरा ही होती है और मोक्ष निकट आता है। यही तो सामान्य वेदन का फल है। बहिरंग में तो कई बार उसके पाँचों इन्द्रियों के भोग भी होते है, हों वह तो उदय का कार्य है। ज्ञानी उन सबका ज्ञाता है। अतः उनसे उसके बंध नहीं होता और अज्ञानी की विषय कषाय की क्रिया से तो बंध होता ही है किन्तु शास्त्र प्रवचन करते समय, शास्त्र बनाते समय, व्यवहार धर्म पालते समय अर्थात् कोई भी क्रिया करते समय अपने को विशेष रूप से अनुभव करने वाले अज्ञानी के निरन्तर बंध होता ही है। उसकी कोई क्रिया संवर निर्जरा की कारण नहीं है। ऐसा वस्तु का नियम है। इसमें आध्यात्मिक रहस्य की बात यह है कि बहिरंग किया तो परद्रव्य की स्वतन्त्र क्रिया है। उससे बन्ध अबंध का प्रश्न ही नहीं किन्तु फिर भी अज्ञानी की उन क्रियाओं को बंध का कारण कहा है और ज्ञानी की क्रियाओं को बन्ध का कारण नहीं कहा है। इस का रहस्य यह है कि अज्ञानी के परिणाम में उन क्रियाओं को करते हुवे पर के एकत्व, घर के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का भाव रहता है। स्वामित्व का भाव रहता है और साथ में अनन्तानुबंधी कषाय की पुट रहती है। अतः बन्ध तो वास्तव में उस मोह और कषाय से होता है पर परद्रव्य पर आरोप करके यह कहा जाता है कि अज्ञानियों की क्रिया बंध का कारण