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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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अर्थ-वह (शद्ध सामान्य रूप सत्) कि जो विशेष में अपनी नौ पदार्थ रूप अवस्थाओं में) अनुपम रूप से विद्यमान रहता है (एक-सा बना रहता है) मिध्यादष्टियों के द्वारा अनुभव नहीं किया जाता है क्योंकि उनको भेदविज्ञान की प्राप्ति नहीं है और दृष्टि में ( श्रद्धा में ) दर्शनमोह का दोष है।
भावार्थ-यद्यपि मिथ्यादृष्टि की आत्मा में भी वह सामान्यस्वरूप अनुपम रूप से विद्यमान है पर विचारे को भेदविज्ञान नहीं है। सामान्य और विशेष दोनों के स्वरूप का परिचय नहीं है। अत: विशेष का ही अनुभव कर दुःखी होता है। इसका कारण भी यह है कि दृष्टि में अनादिकालीन एकत्त्वबुद्धि का संस्कार है।
यहा विशेषरूपेण स्वदते तन्कुदृष्टिनाम् ।
अर्थात् सा चेतना जून कर्मकार्येऽथ कर्मणि ॥ ९९१॥ अर्थ-अथवा वह ( सत् ) मिथ्याष्टियों के द्वारा विशेष रूप से ( पर्याय रूप से-नौ पदार्थ रूप से ) स्वाद लिया जाता है। इसलिये वह चेतना निश्चय से कर्मफल में और कर्म में होती है।
भावार्थ-आचार्य महाराज ने नियम बता दिया है कि विशेष का अनुभव राग-द्वेष-मोह रूप और सुख-दुःख रूप ही होता है। उसे आत्मिक सुख का स्वाद आ ही नहीं सकता।
दृष्टांतः सैन्धवं रिवल्यं व्यञ्जनेषु विमिश्रितम् ।
व्यञ्जनं क्षारमज्ञानां स्वदते तद्विमोहिनाम् ॥ ९९२ ।। अर्थ-दृष्टान्तः-नमक कीखारी डली भोजनों में मिली हवी है। उन व्यञ्जनों में मोहित अज्ञानियों को वह व्यञ्जन ही खारा रूप स्वाद में आता है ( नमक नहीं) ।[ उसी प्रकार आत्मा रूप ज्ञान इली राग-द्वेष-मोह और सुख-दुःख में मिली हुवी है। अज्ञानियों को वह राग-द्वेष-मोह और सुख-दुःखरूप ही स्वाद में आता है-ज्ञान रूप से नहीं ]।
भावार्थ-यह सामान्य विशेष के स्वरूप को स्पष्ट भिन्न-भित्र दिखलाने वाला दृष्टान्त है। नमक की इली साकों में मिली है। नमक कीडलीकाखारास्वादन लेकर अज्ञानी साकों का स्वाद लेता है। उसी प्रकार आत्मा का ज्ञानस्वरूप राग-द्वेष-मोह और सुख-दुःख विकार में मिला है? वह उसे ज्ञान रूप स्वाद न लेकर अज्ञानरूप ही स्वाद लेता है। (श्री समयसार गा. १५)
क्षारं रिवल्यं तदेवैक मिश्रित व्यञ्जनेषु वा ।
न मिश्रितं तदेवै स्वदते ज्ञानवेटिलाम || ee3|| अर्थ-जान को वेदन करने वालों के द्वारा, भोजनों में मिली हवी वह एकही नमक की डली अथवा भोजनों में नहीं मिली हुवी वह एक ही नमक की डली-खारेरूप स्वाद ली जाती है। उस प्रकार ज्ञानियों के द्वारा राग-द्वेष-मोह सुखदुःख में मिला हुवा ज्ञान की डली रूप आत्मा या नहीं मिला हुवा शुद्ध आत्मा एक ज्ञान रूप ही स्वाद लिया जाता है ]
भावार्थ-नीचे की भूमिकाओं में यद्यपि ज्ञानी का आत्मा राग-द्वेष-मोह और सुख-दुःख से मिला हुआ है फिर भी वह भेदविज्ञान और वैराग्य की शक्ति के बल से उसका उस रूप वेदन न करके ज्ञान रूपवेदन करता है और अतीन्द्रिय सुख रूप फल को भोगता है और ऊपर की भूमिकाओं में तो वह आत्मा ज्ञान के अनुभव रूप ही है। इसमें दृष्टांत भी है कि जो नमक की डली का स्वाद जानता है उसके लिये वह डली डली रूप से खाने में आये या साकों में मिला दी जावे किन्तु उसे डली के खारे स्वाद की परख होने के कारण वह उसे खारे रूप से ही स्वाद लेगा-साक रूप से नहीं।
इति सिद्धं कुदृष्टीनामेकैवाज्ञानचेतना ।
सविस्तदज्ञानजातैस्तैरनतिक्रमात ॥ ९९४ ॥ अर्थ-इसप्रकार मिथ्यादृष्टियों के एक अज्ञान चेतना ही सिद्ध होती है क्योंकि वे उस आत्मा के अज्ञान से उत्पन्न हुवे सब अज्ञान भावों को उलंघन नहीं करते हैं।
भावार्थ-बस ज्ञानी-अज्ञानी की यही एक विधि है। सामान्य का अनुभव करने वाला ज्ञानी। विशेष का अनुभव करने वाला अज्ञानी । अज्ञानी चाहे ग्यारह अंग तक पढ़ जाये या महाव्रतों को धार कर मुनि भी हो जाये पर जब तक उसे अपने विशेष स्वरूप का अनुभव रहेगा तब तक उनके जितने भी भाव उत्पन्न होंगे वे राग-द्वेष-मोह या दुःख-सुख