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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
समाधान अगले सूत्र ९८८ से १००५ तक का सार पहले प्रश्न का समाधान-शिष्य की दोनों शंकाएं मार्मिक हैं। उनका उत्तर इस प्रकार है। सम्यग्दर्शन मिथ्यादर्शन दोनों का विषय एक आत्मा है यह तो ठीक है।पर भाई आत्मा सामान्यविशेषात्मक है सम्यग्दष्टि विशेष को गौण करके सामान्य का अनुभव करता है सो सामान्य के आश्रय से शुद्धात्मोपलब्धि ही होती है। मिथ्यादृष्टि को सामान्य का तो ज्ञान ही नहीं है। केवल विशेष को जानता है और उसी रूप से (अपने को पर्याय रूप से) अनुभव करता है। विशेष का अनुभव अशुद्धात्मोपलब्धि रूप ही होती है। यही इसमें रहस्य है। आत्मा, एक रूप होकर भी दोनों को भिन्न-भिन्न रूप से अनुभव में आता है। एक कारागरूप से, एकको शद्धरूप से। तथा एक को दुःख रूप स्वाद आता है। एक को सुख रूप स्वाद आता है।
दूसरे प्रश्न का समाधान-सम्यग्दर्शन का विषय भी नौ पदार्थ है और मिथ्यादर्शन का विषय भी नौ पदार्थ है यह तो आपकी बात ठीक है (आगमप्रमाण श्री पंचास्तिकाय गा.१०७ टीका की अन्तिम पंक्ति) पर भाई सम्यग्दृष्टि उन नौ तत्वों को सामान्यरूप से अनुभव करता है अर्थात् उस नौ तत्व रूप विकार को गौण करके उनमें अन्वय रूप से पाये जाने वाले सामान्य शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है। इसलिये उसको नौ तच्च शुद्ध रूप से अनुभव में आते हैं। और मिथ्यादृष्टि उनका विशेष रूप से अनुभव करता है इसलिये उसको अशुद्धरूप से अनुभव में आते हैं। इसप्रकार सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन का विषय भी एक ही रहा और वह शुद्ध-अशुद्ध भी बन गया। आगम में कहा भी है "भूतार्थनय आश्रित नौ तत्त्व सम्यग्दर्शन का विषय है और राग सहित नौ पदार्थों की श्रद्धा मिथ्यादर्शन है"यही उपयुक्त श्लोकों में की गई शंकाओं का मर्म है। जो ग्रन्थकार ने आगे स्वयं स्पष्ट किया है और पहले सूत्र ९५७ में भी कह आये हैं।
समाधान सूत्र १८८ से १००५ तक १८ नै यतः रखतः शश्वत् स्वादुभेदोऽरित वस्तुनि ।
तत्राभिव्यञ्जकद्वेधाभावसद्भावतः पृथक || ९८८॥ अर्थ-ऐसा नहीं है क्योंकि सम्यग्ददृष्टि और मिथ्यादृष्टि के सदा ही एक ही आत्मवस्तु में स्वभावतः स्वाद का भेद पाया जाता है क्योंकि वहाँ उनके स्वादभेद के अभिव्यंजक (प्रगट करने वाले) जुदे-जुदे दो प्रकार के हैं वह इस प्रकार...........
भावार्थ-आत्मा सामान्य विशेषात्मक पदार्थ है। सम्यग्दर्शन मिथ्यादर्शन दोनों का विषय वह एक आत्मा ही है। उसको सामान्यरूप अनुभव करने से वह शुद्धरूप से पर्याय में प्रगट होता है और उसका स्वाद अतीन्द्रिय सख रूप है और विशेषरूप ( नौ पदार्थ रूप) अनुभव करने से वह पर्याय में अशुद्ध रूप प्रगट होता है। उसका स्वाद रागद्वेष मोह और सुख-दुःख रूप है। इस प्रकार विषय एक ही रहते हुए भी उसकी प्रगटता दो प्रकार की है। अब इसको ग्रंथकार स्वयं स्पष्ट करते हैं।
शुद्धं सामान्यमात्रत्वादशुद्धं तद्विशेषतः ।
वस्तु सामान्यरूपेण स्वदते स्वादुसद्विदाम् ॥ ९८९॥ अर्थ-(आत्म ) वस्तु सामान्य स्वरूप से शुद्ध है और वही आत्मवस्तु विशेषरूप से अशुद्ध है क्योंकि (वस्तु सामान्यविशेषात्मक है ) सत् को वेदन करने वालों के ( सम्यग्दृष्टियों के वस्तु सामान्य रूप से स्वादु ( मधुर-अतीन्द्रिय सुख रूप) अनुभव की जाती है।
भावार्थ-वर्तमान में ही वस्तु सामान्य स्वरूप से शुद्ध है और विशेष स्वरूप से अशुद्ध है। ज्ञानी उसके विशेष स्वरूप को गौण करके सामान्य सत् का वेदन करते हैं जो वेदन निर्विकल्प अतीन्द्रिय सुखरूप है। अज्ञानी को निश्चय नय का संस्कार न होने से तथा निश्चय का उपदेश न मिलने से, वह सामान्य को जानता ही नहीं, मात्र पर्याय रूप से अपने को अनुभव करता है। उसके फलस्वरूप मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और दुःख को भोगता है यही अब कहते हैं -
स्वदते न परेषां तद्यद्विशेषेऽप्यनीदृशम् । तेषामलब्धबुद्धित्ताद दृष्टेर्दृइमोहदोषतः ॥ ९९० ।।