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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
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कभी इसके कर्ता-भोक्ता के विकल्पानुसार परवस्तु का परिणमन भी स्वतः हो जाता है तो उससे इसके घर के कर्ता - भोक्तापने को पुष्टि मिलती रहती है और यह समझता है कि देखो मेरे करने से ही ऐसा हो गया। जैसे - गाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता स्वयं चलने वाली गाड़ी को भी 'मेरे द्वारा चलती है' ऐसा जानता है। अनादिकालीन यह दृढ़ अज्ञान संस्कार शुद्ध नय के उपदेश बिना और यह जाने बिना कि आत्मा में पर को करने भोगने की तो कोई शक्ति ही नहीं किन्तु पर के अकर्ता - अभोक्तापने की शक्ति है, नहीं मिटता । ज्ञानी को वस्तु का ठीक-ठीक भान हो गया है। वह पदार्थ को इन चरम चक्षुओं से नहीं देखता किन्तु आगमचक्षु से देखता है कि प्रत्येक पदार्थ पूर्णतया स्वतन्त्ररूप से अपने द्रव्यगुण पर्यायों में असहाय रूप से परिणमन कर रहा है। अतः उसको स्वप्न में भी पर को करने- भोगने का भाव नहीं आता। वह मात्र पर की पर्यायों का ज्ञाता ही है । इसी को जीवन- मुक्तपना कहते हैं। यह भी ज्ञानी का लक्षण है। उपर्युक्त लक्षणों का अविनाभाव है। वे हर एक ज्ञानी में नियम से पाये जाते हैं। ऐसा ही वस्तु स्वभाव है।
नोट- साधारण जीवों को तो क्या, विद्वानों को भी इस विषय में बहुत शंका रहती है। अतः कुछ ज्ञानियों के विचार आपकी सेवा में उपस्थित करते हैं।
१. श्री कुन्दकुन्द आचार्य देव के विचार द्रव्य निर्जरा का स्वरूप
उवभोगमिंटियेहिं
दव्वाणमवेदणाणमिदराणं ।
जे कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥ ११३ ॥ समयसार अर्थ - सम्यग्दृष्टि जीव जो इन्द्रियों के द्वारा अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग करता है, वह सब निर्जरा का निमित्त है। (यहाँ उदय की स्वतंत्र क्रिया और उस समय ज्ञानी के ज्ञान और वैराग्य भाव का अस्तित्व और सामान्य का वेदन दिखलाया है। ) कमाल है।
भावनिर्जरा का स्वरूप
दव्वे उवभुंजते णियमा जायदि सुहंच दुक्खं वा ।
तं सुहदुवस्वमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि ॥ १९४ ॥ समयसार
अर्थ -- वस्तु भोगने में आने पर सुख अथवा दुःख नियम से उत्पन्न होता है। उदय को प्राप्त ( उत्पन्न हुवे ) उस सुखदुःख का अनुभव करता है, पश्चात् वह (सुख-दुःख रूप भाव ) निर्जरा को प्राप्त होता है (यहाँ यह दिखलाया है कि महान से महान् सुख-दुःख को वेदन करते समय भी ज्ञानी के अज्ञान भाव के अभाव के कारण तो बंध नहीं होता तथा ज्ञान और वैराग्य भाव के सद्भाव और उसी समय सामान्य का वेदन रहने से उल्टी संवर निर्जरा होती है ) | क्या वस्तु स्वभाव का कमाल है अज्ञानी की समझ नहीं पड़ता पर ज्ञानी बराबर जानते हैं। यह अनुभव से सम्बन्ध रखती हैं। केवल शास्त्र पाठियों को समझ नहीं आ सकती।
२. श्री अमृतचन्द्र आचार्य देव के विचार
इन दो लक्षणों की शक्ति से ही ज्ञानी कर्मों को भोगता हुआ भी कर्मों से नहीं बंधता है। श्री समयसारजी कलश नं. १३४ में कहा है
तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्य विरागस्य च वा किल । यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुंजानोऽपि न बध्यते ॥ १३४ ॥
अर्थ - वास्तव में वह (आश्चर्यकारक ) सामर्थ्यज्ञान की ही है, अथवा विराग की ही है, कि कोई (सम्यग्दृष्टि जीव ) कर्मों को भोगता हुआ भी कर्मों से नहीं बंधता । ( वह अज्ञानी को आश्चर्य उत्पन्न करती है और ज्ञानी उसे यथार्थ जानता है। ज्ञानी को 'जीवन्मुक्त' श्री समयसारजी के निम्न कलश नं. १९८ में भी कहा है।
ज्ञानी करोति न, न वेदयते च कर्म
जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावं । जानपरं करणवेदनयोरभावाच्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ॥ १९८ ॥