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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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पद पर भी, महाबतों को धारण करने पर ऐसा क्यों है तो उसका उत्तर यह है कि वह पर में एकत्वबुद्धि तथा इष्टअनिष्ट बुद्धि नहीं छोड़ता है। अशुभ निमित्तों में छोड़ कर शुभ निमित्तों में करने लगता है। देव-शास्त्र-गुरु में करने लगता है। साधर्मियों में करने लगता है। मैं दिगम्बर मुनि हूँ । इसप्रकार शरीर की क्रियाओं में करने लगता है। अच्छा प्रवचन देता हूँ । इस प्रकार वचन क्रियाओं में करने लगता है। जीवों को मोक्षमार्ग पर लगाएं इस प्रकार पर में करने लगता है। मैं महाव्रतों को पालने वाला हूँ इस प्रकार शुभविकल्पों में करने लगता है। मैंने शास्त्र लिखा, प्रतिमा मन्दिर बनवाए, इतने शिष्यों को ज्ञानी बना दिया । इस प्रकार देव-शास्त्र-गुरु में करने लगता है। मिथ्यात्व के रंग बहुत हैं। यह पापी अन्दर ही अन्दर किसी न किसी भेष में अपना काम करता रहता है। और जीव अज्ञानी बना रहता है। इसके अनन्तों टाइप हैं। कहाँ तक कहें। इस पापी से बहुत सावधान रहना चाहिये। मान से जीव इसमें जल्दी फंस जाता है। समाज कार्य के चक्कर में फंस कर या व्यवहार में फंस कर भी जीव इसी कारूपान्तर धारण कर लेता है। इस मिथ्यात्व का बहुत बड़ा पेशा है। एक्टर की तरह रूपबदला करता है और किसी न किसी रूप में जीव को लुभा लेता है। देखो तो जिनवाणी के ग्यारह अंग के पाठी और मुनि तक का पीछा नहीं छोड़ता। जीव अपने को सम्यग्दृष्टि समझता रहता है और यह पापी अन्दर ही अन्दर सूक्ष्मता से अपना काम करता रहता है। बड़ी विचित्रता है।
प्रमाण-मिथ्यादृष्टि अज्ञानचेतना का कर्ता भोक्ता ही है । इसकी प्रमाण रूप गाथा ६९ तथा सम्यग्दृष्टि ज्ञानचेतना का कर्ता भोक्ता ही है । इसकी प्रमाण रूप गाथा ७० उपस्थित करते हैं:
श्री पंचास्तिकाय में कहा है एवं कत्ता भोत्ता होजं आप्पा सोहिं कम्मेहिं ।
हिंडदि पारमपारं संसारं मोहसंछण्णो ॥६९॥ अर्थ-इसप्रकार अपने कर्मों से कर्ता भोक्ता होता हुआ आत्मा मोहाच्छादित वर्तता सान्त अथवा अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है।
टीका-यह, कर्मसंयुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्व गुण का व्याख्यान है। इसप्रकार प्रगट प्रभुत्वशक्ति के कारण जिसने अपने कर्मों द्वारा (निश्चय से भावकर्मों और व्यवहार से द्रव्यकर्मों द्वारा) कर्तृत्व और भोक्तृत्व का अधिकार ग्रहण किया है ऐसे इस आत्मा के, अनादि मोहाच्छादितपने के कारण से विपरीताभिनिवेश उत्पत्र होने से सम्यग्ज्ञान ज्योति अस्त हो गई है इसलिये वह सांत अथवा अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है। इस प्रकार जीव के कर्मसहितपने की मुख्यता पूर्वक प्रभुत्वगुण का व्याख्यान करने में आया)।
उवसंतरवीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समवगदो ।
णाणाणुमग्मचारी णिचाणपुरं वजटि धीरो ॥ ७० ॥ अर्थ-जो (पुरुष) जिनवचन से मार्ग को पाकर उपशांतक्षीणमोह होता हुआ (अर्थात् दर्शनमोह का जिसके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो गया है ऐसा होता हुआ) ज्ञानानुमार्ग में आचरण करता है (ज्ञान के अनुसरनेवाले मार्ग में प्रवर्तता है ), वह धीर पुरुष निर्वाणपुर को पाता है। ___टीका-यह, कर्मवियुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्वगुण का व्याख्यान है। जब यही आत्मा ( जो पहले अज्ञानी था) जिनाज्ञा द्वारा मार्ग को पाकर, उपशांतक्षीणमोहपने के कारण से ( दर्शनमोह के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के कारण) जिसको विपरीताभिनिवेश नष्ट हो गया होने से सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगट हो गई है ऐसा होता हुआ, कर्तृत्व और भोक्तृत्व के अधिकार को समाप्त करके सम्यकपर्ने प्रगट प्रभुत्व शक्तिवाला होता हुआ ज्ञान के ही अनुसरनेवाले मार्ग में आचरता है ( प्रवर्तता है, परिणमता है,आचरण करता है),तब वह विशद्ध आत्मतत्व की उपलब्धिरूप अपवर्गनगर को( मोक्षपुरको) पाताहै।( इसप्रकार जीव के कर्मरहितपने की मुख्यतापूर्वक प्रभुत्वगुणकाव्याख्यान करने में आया )।
अशुद्ध चेतना का निरूपण सूत्र ९७४ से २८२ तक ९
___ कर्मफलचेतना का स्वरूप तथा सुरवदुःरवादिरूपेणात्माऽस्ति तन्मयः । तदात्वेऽहं सुरखी दुःरवी मन्यते सर्वतो जगत् ।। ९७४ ।।