________________
२८०
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ-बात असल यह है कि जब ज्ञान चेतना होती है तो ज्ञानावरणीय का भी एक खास प्रकार का क्षयोपशम होता है और दर्शन मोह का भी अनुदय होता है और उन दोनों कर्मों का अविनाभाव है तो आचार्य उत्तर देते हैं कि भाई ज्ञानावरणीय का क्षयोप
का क्षयोपशम तो इसमें कारणहा पर दर्शनमोहका अनदय भी कारण दोनों बातें हैं। इस पर फिर शिष्य कहता है कि प्रत्येक गुण का आवरण भिन्न-भिन्न है। ज्ञानवरणीय ही कारण होना चाहिये दर्शनमोह नहीं, तो उत्तर दृष्टान्तपूर्वक समझाते हैं।
अस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावत्यदयक्षतेः ।
तथा वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽनुयादपि ॥ ९७० ॥ अर्थ-जैसे जो मति-आदिज्ञान-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होते हैं वैसे ही वह (मति-आदि ज्ञान ) वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से भी होती है।
भावार्थ-जैसे ज्ञान ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होता है वैसे ही वह वीर्यान्तराय के भी क्षयोपशम से होता है। ऐसा नियम है कि यदि इन दोनों में से एक का क्षयोपशम न हो तो ज्ञान नहीं हो सकता ।
मत्यावरणस्योच्चैः कर्मणोऽनुदयायथा ।
दृमोहस्योदयाभावादात्मशुद्धोपलब्धिः स्यात् ॥ ९७१ ॥ अर्थ-जैसे आत्मा की शुद्धोपलब्धिस्व योग्य मतिज्ञानावरण आदि कर्म के अभाव से होती है वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के अभाव से भी होती है। अर्थात् दोनों के अभाव से होती है।
पुनः प्रकृत विषय { शुद्धोपलब्धि ) चालू किं चोपलब्धिशब्दोऽपि स्यादनेकार्थवाचकः ।
शुद्धोपलब्धिरित्युक्ता स्यादशुद्भत्तहानये || ९७२॥ अर्थ-और उपलब्धि शब्द भी अनेक अर्थों का वाचक है। इसलिये ऊपर अशुद्धता के अभाव को प्रगट करने के लिये शुद्धउपलब्धि" ऐसा कहा गया है।
भावार्थ-उपलब्धि शब्द सामान्य है। उपलब्धि अशुद्धोपलब्धि भी होती है। शुद्धोपलब्धि भी होती है। अत: सम्यग्दृष्टि के उपलब्धि की बजाय शुद्धोपलब्धि कहा जाता है ताकि अशुद्धोपलब्धि का ग्रहण न हो सके।
अरत्यशुद्धोपलब्धिश्च तथा मिथ्यादा परम् ।
सुदृशां गौणरूपेण रयान्न रयाद्वा कदाचन ॥ ९७३ ॥ अर्थ-और अशुद्धोपलब्धि केवल मिथ्यादृष्टियों के होती है। सम्यग्दृष्टियों के तो कभी-कभी ( अर्थात् नीचे की भूमिकाओं में ) गौणरूप से ( अर्थात् ज्ञेयरूप से) उसकी सत्ता मात्र होती है। पर वे उसके स्वामी नहीं होते) और कभीकभी ( अर्थात् ऊपर की भूमिकाओं में ) होती ही नहीं है।
भावार्थ-(१) सम्यग्दृष्टियों के अशुद्धोपलब्धि ऊपर की भूमिकाओं में तो होती ही नहीं। नीचे की भूमिकाओं में भी समाधि के समय में नहीं होती है। केवल असमाधि के समय में होती है वह भी ज्ञेयरूप से। यह ध्यान रहे कि ज्ञानी अशुद्धोपलब्धिके कर्ता भोक्ता कभी नहीं होते-केवल ज्ञाताही रहते हैं। अशुद्धोपलब्धि का स्वामी तो केवल मिथ्यादृष्टि ही होता है सम्यग्दृष्टि उसका स्वामी पने से कभी नहीं होता और न सूत्र में सम्यग्दृष्टि को उसका स्वामी बताने की बात है। केवल अस्तित्व की बात है कि नीचे की भूमिकाओं में ज्ञानियों के भी उसका अस्तित्वमात्र पाया जाता है वह भी गौण रूप से अर्थात् ज्ञेयरूप से । यह खास ध्यान रखने की बात है। अशुद्धोपलब्धि का कर्ता भोक्ता स्वामीपने से तो ज्ञानी कभी होता ही नहीं। इसमें भूल न हो जाये मात्र अशुद्धोपलब्धि का अस्तित्व कहाँ तक है इसकी बात कही है।
(२) मिथ्यादृष्टि के तो ग्यारह अङ्ग के ज्ञान तक होने पर भी, महाबतों को धारण करने पर भी, नववें ग्रीवक जाने योग्य विशुद्ध (शुभ) परिणाम होने पर भी, एक मात्र अशुद्धोपलब्धि (अर्थात् कर्म चेतना और कर्मफलचेतना)ही होती है। और वह उसका स्वामी ही होता है।कर्ता भोक्ता ही होता है। आपको यह शंका हो सकती है कि ग्यारह अंग