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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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चेतना के भेद तथा उन भेदों का स्वरूप एका स्याच्चेलना शदा स्याटसुद्धा परा ततः ।
शुद्धा स्यादात्मजस्तस्वमस्त्यशुद्धात्मकर्मजा ॥ ९६१॥ अर्थ-एक शुद्ध चेतना है और उससे दूसरी अशुद्ध चेतना है। शुद्ध चेतना आत्मा का तत्व है और अशुद्ध चेतना आत्मा और कर्म से उत्पन्न होने वाली है।
भावार्थ-अनादि काल से जीव के साथ संयोग रूप द्रव्य कर्म है तथा शरीर, स्त्री, पुत्र, धनादि नोकर्म भी है ।जीव अनादि काल का अज्ञानी है और भेदविज्ञान को प्राप्त नहीं है। अतः उन कर्मों में जुड़ कर अपने को ही उन रूप या उनको अपने रूप समझ कर एकत्व बुद्धि कर रहा है। यह मोह भाव है। और फिर उनमें इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करता है कि यह मुझे लाभदायक है, यह मुझे हानिकारक है। ऐसी कल्पना होते ही इष्ट में राग और अनिष्ट में द्वेष प्रारम्भ करता है। यह मोह राग द्वेष रूप जो चेतना का विपरीत परिणमन है। इसको कर्म चेतना कहते हैं। कर्म शब्द का अर्थ कार्य अर्थात् राग-द्वेष-मोह भाव है। तथा इन्हीं पदार्थों को अपना भोग्य कल्पना करके किसी में सुख की; किसी में दुःख की कल्पना करता है। यह सुख-दुःख का भाव कर्मफल चेतना है। कर्मफल अर्थात् कर्म के उदय से होने वाली संयोग रूप सामग्री और चेतना का अर्थ है उस सामग्री के लक्ष से सुख-दुःख रूप परिणमन । इन कर्म चेतना और कर्मफल चेतना दोनों को अशुद्ध चेतना कहते हैं। ये अज्ञानी के ही होती हैं क्योंकि मिथ्यात्व इनका मूल है। यह आत्मा और कर्म से उत्पन्न होती है इसका भाव यह है कि जब जीव अपने स्वरूप को भूल कर द्रव्य कर्म और नोकर्म में जुड़ता है तभी उपादान रूप मल चेतना का अशद्ध परिणमन होता है। इनमें बिना जुड़े अशुद्ध परिणमन नहीं हो सकता। अतः यह चेतना आत्मा और कर्म से उत्पन्न कहलाती है। इस प्रकार अशुद्ध चेतना को करते-करते जीव का अनन्त काल बीत गया है। कोई निकट भव्य जीव सद्गुरु का समागम पाकर स्वपर का भेदविज्ञान करता है और नौ तत्त्वों में अन्वय रूप से पाये जाने वाले सामान्य का आश्रय करता है तो इस चेतना का परिणमन बदल कर रागरहित हो जाता है अर्थात् ज्ञान दर्शन का ज्ञान दर्शन रूप ही परिणमन होने लगता है। उसको शुद्ध चेतना कहते हैं। यहाँ शुद्ध का अर्थ सामान्य नहीं है किन्तु नास्ति से सगद्वेष मोह के मैल से रहित अर्थ है और अस्ति से ज्ञान का ज्ञानरूप परिणमन अर्थ है। इसमें कर्म का आश्रय नहीं है क्योंकि कर्म में जुड़ने की बजाए अपने पारणामिक स्वभाव में जुड़ने से यह उत्पन्न होती है। जैसा सामान्य का स्वरूप है अर्थात् जैसा आत्मा का स्वभाव है वैसा पर्याय में प्रगट हो जाता है। अत: इसको आत्मा का तत्व कहते हैं। क्योंकि दोनों चेतनाओं में शुद्धचेतना पूज्य है। पर्याय अपेक्षा उपादेय है अत: पहले उसी का स्वरूप कहते हैं।
शुद्ध चेतना में भेद नहीं है इसकी सहेतुक सिद्धि एकधा चेतना शुद्धा शुद्धस्यैकविधत्वतः ।
शत्दा शद्धोपलब्धित्वाज्ज्ञानत्वाज्ज्ञानचेतना ॥ ९९२|| अर्थ-शुद्ध चेतना एक प्रकार की है क्योंकि शुद्ध एक प्रकार ही है। शुद्धता की उपलब्धि होती है इसलिये वह शुद्ध है और वह शुद्धोपलब्धि ज्ञानरूप है इसलिये उसे ज्ञान चेतना कहते हैं।
भावार्थ-जैसे ऊपर अशुद्ध चेतना के दो भेद बतलाये हैं उस प्रकार शुद्ध चेतना का कोई भेद नहीं है। वह चौथे से सिद्ध तक सब के एक प्रकार की ही होती है। उसमें दसरा यं नहीं है कि स्वभाव सदा एक ही प्रकार का होता है। उसे शुद्ध इसलिये कहते हैं कि पर्याय में उसकी प्राप्ति शुद्ध रूप ही है। रागादि की तरह किसी विभाव से मिश्रित नहीं है क्योंकि वह ज्ञान का ज्ञान रूप परिणमन ही है। इसलिये एक रूप होने से शुद्ध चेतना या ज्ञान रूप होने से ज्ञान चेतना भी इसी का नामान्तर है।
अशुद्ध चेतना के दो भेद हैं इसकी सहेतुक सिद्धि अशुद्धा चेतजा द्वेधा ताथा कर्मचेतना । चेतनत्वात् फलस्यास्य स्यात्कर्मफलचेतना || ११३॥