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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अर्थ - अशुद्ध चेतना दो प्रकार है। वह इस प्रकार । एक कर्मचेतना । दूसरी कर्म चेतना जन्य फल का अनुभव करने के कारण कर्मफल चेतना ।
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भावार्थ - अशुद्ध चेतना के दो भेद तो ऊपर कह ही आये हैं। पहले जीव कर्मचेतना को जन्म देता है। उसके निमित्तनैमित्तिक संबन्ध से द्रव्यकर्म बंधते हैं। उनके फलस्वरूप अनि मलती है। वह सामग्री कर्म चेतना जन्य फल है। उसमें इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करके अपने को सुख-दुःख रूप अनुभव करना कर्मफल चेतना है। सामान्यतया घर को करूं करूं करूं यह कर्मचेतना का भाव है तथा पर को भोगूं-भोगूं-भोगूं यह कर्मफल चेतना का भाव है। शुद्ध चेतना का निरूपण ९६४ से ९७३ तक
अत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्यस्तन्मात्रतः स्वयम् ।
स चेत्यतेऽनया शुद्धः शुद्धा सा ज्ञानचेतना ॥ ९६४ ॥
अर्थ - इस ज्ञान चेतना में ज्ञान शब्द से आत्मा समझना चाहिये क्योंकि वह ( आत्मा ) स्वयं ज्ञानरूप ही है। और वह आत्मा इस चेतना के द्वारा शुद्ध अनुभव किया जाता है इसलिये वह ज्ञानचेतना शुद्ध कहलाती है।
भावार्थ- गुण गुणी के भेद से आत्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण है। अभेद से जो गुण है वह गुणी है। जो ज्ञान है वह आत्मा है। दूसरे वेदन तो अखण्ड का ही होता है। अब कहते हैं कि शुद्ध चेतना का पर्यायवाची नाम ज्ञान चेतना है। इसमें ज्ञान शब्द का अर्थ अभेद दृष्टि से आत्मा है। और वह आत्मा जैसा शुद्ध मूल जीवास्तिकाय पदार्थ है वैसा ही वह अनुभव किया जाता है। विभाव रूप मैल का लेश मात्र संवेदन नहीं है। अतः इसको शुद्ध चेतना अर्थात् अकेली आत्मा का संवेदन कहते हैं। अब बताते हैं कि यह वास्तव में क्या है
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अर्थाज्ज्ञानं गुणः सम्यक् प्राप्तावस्थान्तरं यदा । आत्मोपलब्धिरूपं स्यादुच्यते ज्ञानचेतना ॥ ९६५ ॥
अर्थ - अर्थात् जिस समय आत्मा का ज्ञान गुण, सम्यक्त्व युक्त प्राप्त की है अवस्थान्तर जिसने ऐसा होकर आत्मोपलब्धि रूप होता है उस समय वह 'ज्ञानचेतना' कहा जाता है।
भावार्थ- वह ज्ञान चेतना क्या चीज़ है। कोई कहता है सामान्यरूप है। कोई कहता है सामान्य के अनुभव रूप है पर वास्तव में वह द्रव्य है, गुण है, पर्याय है क्या है उसका सरल शब्दों में क्या स्वरूप है तो कहते हैं कि यह जो ज्ञान का अनादि काल का राग-द्वेष-मोह और सुख-दुःख रूप परिणमन हो रहा है यही पर्याय बदल कर ज्ञान रूप कार्य करने लगती हैं अर्थात् स्व पर को मात्र जानता ही है किसी में राग-द्वेष-मोह या सुख-दुःख नहीं करता है। केवल जैसा ज्ञानरूप आत्मा का स्वतः सिद्ध स्वभाव हैं बस, मात्र वही कार्य करने लगता है यही उसकी शुद्धचेतना या ज्ञानचेतना या आत्मा की प्राप्ति है। ज्ञान की यह अवस्थान्तर है अर्थात् अनादिकालीन अवस्था से भिन्न प्रकार की अवस्था है। ज्ञान की यह अवस्था सम्यक्त्व से अविनाभावी है। अतः सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय से ही प्रारंभ होती है । स्वभाव पर्याय रूप है।
सा ज्ञानचेतना नूनमस्ति
सम्यग्दृगात्मनः ।
न स्यान्मिथ्यादृशः क्वापि तदात्वे तटसम्भवात् ॥ ९६६ ॥
अर्थ- वह ज्ञान चेतना निश्चय से सम्यग्दृष्टि जीव के होती है। मिध्यादृष्टि जीव के किसी भी अवस्था में नहीं होती क्योंकि उस ( मिथ्यात्व ) अवस्था में उस (ज्ञान चेतना) की असंभवता है।
भावार्थ - यह नियमरूप सूत्र है और यह बताता है कि ज्ञान चेतना सम्यग्दृष्टि के ही होती है मिथ्यादृष्टि के कभी नहीं होती । सम्यग्दृष्टियों में भी चौथे से सिद्ध तक सब के होती है। किसी के न हो ऐसा नहीं है। ज्ञान चेतना सम्यक्तवी का प्राण है इसके बिना सम्यग्दृष्टि नहीं होता। दोनों ओर से व्याप्ति है। जो-जो समयग्दृष्टि होता है उसके ज्ञान चेतना होती ही है तथा जहाँ-जहाँ ज्ञान चेतना होती है वहाँ-वहाँ सम्यक्त्व होता ही है। ऐसा नूनं शब्द का अभिप्राय है। इसमें