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________________ २७४ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अर्थ-जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों का श्रद्धान सदा करना चाहिये। वह श्रद्धान विपरीत अभिप्राय से रहित है और वह भानासए है! आताप राग को नहीं कहीं। शुद्ध भाव को ही कहते हैं। इसी प्रकार ज्ञान में कहा है: कर्तव्योऽध्यवसाय: सदोकान्तात्मकेषु तत्तेषु । संशयविपर्ययान्नध्यवसायविविक्तमात्मरूपं तत् ॥ ३५ ॥ अर्थ-सत् अनेकान्तात्मक तत्त्वों में जानपना करना चाहिये। वह जानपना संशय, विपर्यय और अनथ्यवसाय रहित आत्मरूप है। आत्मरूप शुद्धभाव को कहते हैं। ज्ञान में भी विकल्प (राग) अंश का स्वीकार नहीं किया है। मात्र शुद्ध ज्ञान अंश को सम्यग्ज्ञान कहा है। इसी प्रकार चारित्र का लक्षण कहा है: चारित्रं भवति यत: समस्तसावाद्ययोनापरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमाल्मरूपं तत् ॥ ३९॥ अर्थ-क्योंकि समस्त सावध योग के त्याग से चारित्र होता है। अतः वह सम्पूर्ण कषाय से रहित है। विशद है। उदासीन अर्थात् वीतरागता रूप है और आत्मरूप है। आत्मरूप शुद्ध भाव को कहते हैं। इसमें भी राग अंश की स्वीकारता रंचमात्र नहीं है। राग को रत्नत्रय कहीं कहा ही नहीं है। प्रश्न - रलाय तो अखण्ड पर्याय को कहते हैं। चौथे-पाँचवें-छठे गुणस्थान में बुद्धिपूर्वक गग भी रहता है। तो क्या एक पर्याय के खण्ड-खण्ड करके शुद्ध अंश को रत्नत्रय कहते हैं राग को नहीं ? उत्तर - हाँ, यही बात है। श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय के श्लोक नं. २१२ से २२१ तक में स्पष्ट लिखा है कि जितने अंश में शुद्ध भाव है उतने अंश में रत्नत्रय है। जितने अंश में राय है उतने अंश में बंध है। पर्याय के टुकड़े करके शुद्ध अंश को ही रत्नत्रय कहा जाता है। प्रश्न - हमने सुना है आत्मा के श्रद्धान को शुद्ध या निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं और नौ तत्त्वों के श्रद्धान को अशुद्ध या व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं ? उत्तर - यह भी तुमने गलत सुना है। सम्यग्दर्शन में दो भेद ही नहीं हैं। वह एक ही होता है। शुद्ध ही होता है। उसके लक्षण निम्न प्रकार कई हैंपर शुद्ध भाव के हैं। पर्यायवाची हैं। (१) स्वपर का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है या सात तत्व का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है या नौ पदार्थों की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। ये पर्यायवाची लक्षण हैं। शुद्धभाव के द्योतक हैं (श्री द्रव्य संग्रह गा.४१) में यह आत्मा का रूप है इस शब्द से स्पष्ट शुद्ध भाव लिखा है। श्री पुरुषार्थ सिद्धि.नं २२ में आत्मरूप कहा है। श्री समयसार पुण्य-पाप अधिकार में शिष्य इसे शुभ विकल्प रूप मान रहा था। श्री कुन्दकुन्ददेव ने गा. १५५ में इसे शुद्ध भाव कहा। टीकाकार ने अर्थ स्पष्ट कर दिया। एक क्या कोई जैन शास्त्र ऐसा नहीं जिसमें राग को सम्यक्त्व कहा हो)(२) आत्मा का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। यह शुद्ध भाव है। (श्री पुरुषार्थसिद्धि. नं. २१६)। नास्ति से श्री पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय नं. २१५ में लिखा है। योगात्पटेशबन्धः स्थितिबन्धो भवति यः कषायात । दर्शनबोधचरित्र न योगरूपं कषायरूपं च ॥ २१५ ॥ अर्थ-योग से प्रदेशबन्ध होता है और जो स्थिति बन्ध है वह कषाय से होता है। 'दर्शन-ज्ञान-चारित्रन योग रूप है और न कषाय रूप है।' योगरूप से मन-वचन-काय की क्रियाओं का निषेध किया है क्योंकि कथन शैली चरणानुयोग की ऐसी है कि शरीर क्रियाओं का मोक्ष मार्ग में निरूपण हो जाता है। उस भूल पर कुलहाड़ा मारने के लिये नियम रूप से निषेध कर दिया है और कषाय रूप में शुभ-अशुभ विकल्पमात्र का निषेध किया है क्योंकि चरणानुयोग में शुभ विकल्पों का मोक्ष रूप से निरूपण हो जाता है उस भूल को जड़मूल से खोने के लिये नियम कर दिया है कि रत्नत्रय किसी कषाय रूप नहीं है। आचार्य देव चरणानयोग का ग्रंथ लिख रहे थे उसमें जो-जो भूल होती थी उनके स्पष्टीकरण के लिये अन्त में २०१ से २२५ तक सब स्पष्ट कर दिया है। यह प्रकरण बड़े काम का है। बुद्धिमानों के लिये संकेत रूप से इतना लिखना पर्याप्त है बाकी मोह की बिडम्बना को कौन मिटा सकता है ? फारसी में कहा है-"अकल मन्दारा इशारा काफी अस्त।" नौ पदार्थों की सिद्धि समाप्त
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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