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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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यह खास ध्यान रखने योग्य है कि नौ पदार्थों की केवल राग सहित श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व नहीं है। इनकी राग सहित श्रद्धा तो मिथ्यादृष्टि को भी होती है। देखें हिन्दी कलश टाका पत्रा १३ को चौथी-पांचवी लाइन ! किन्तु जब निश्चय से इन ९ पदार्थों में रहने वाले शुद्ध सामान्य का अनुभव रूप निश्चय सम्यक्त्व होता है तब व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि ९ पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। यह भूतार्थाश्रित पद का पेट है! यही बात श्री समयसारजी के कलश नं. ६ में कही है कि नव तत्वों की सन्तति को छोड़कर अर्थात् 'इनकी राग सहित श्रद्धा को छोड़कर' एक (आत्मानुभव) ही हमको प्राप्त होवे ।।
शंका-श्री तत्त्वार्थसूत्रजी में तो 'तत्त्वार्थश्रद्धानं' सम्यग्दर्शन कहा है?
समाधान-हाँ वह भी निश्चय सम्यग्दर्शन का लक्षण है और उसका अर्थ भी ९ तत्वों में रहने वाला आत्मानुभव है। सम्पूर्ण शास्त्रों की यही एक पद्धति है और उन सब का एक ही अर्थ है। प्रश्न - फिर केवल शुद्ध आत्मा की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहना चाहिये था। नौ को नहीं? उत्तर - फिर सांख्य का तत्त्व सिद्ध हो जाता। वह शुद्ध नौ तत्त्वों से सर्वथा भिन्न हो जाता । गौण मुख्य की व्यवस्था
खत्म हो जाती। द्रव्य पर्याय की सापेक्षता न रहती। फिर तो जो बात शिष्य १०४ से कहता आ रहा है वह ही सिद्ध हो जाता। उन नौ तत्त्व का मानना उतना ही जरूरी है जितना कि शुद्धता का । पर बिना शुद्ध के केबल नौ तत्त्व भी व्यर्थ है। पर्याय निरपेक्ष द्रव्य, द्रव्य निरपेक्ष पर्याय दोनों व्यर्थ है। श्री कुन्दकुन्द भगवान तो साक्षात् केवली के शिष्य थे। क्या कमाल से सूत्र बनाया “भूतार्थ से जाने हुये नौ सम्यक्त्व है।" को पर्याय का द्योतक है। भूतार्थ सामान्य शुद्ध का पर्यायवाची है। अर्थ यह है कि शुद्ध का आश्रय हो और नौ तत्त्वों का ज्ञेय रूप से ज्ञान हो तो सम्यग्दृष्टि है। वह श्री समयसार का सूत्र नं. १३ ही तो है। श्री
अमृतचन्द्रजी ने यही तो अर्थ किया है। प्रश्न - यह अर्थ श्री समयसार का है। मोक्षशास्त्र का नहीं ? उत्तर - (१) तो क्या तुम्हारी राय में मोक्षशास्त्रकार ने द्रव्य निरपेक्ष नौ पदार्थ की पर्यायों की श्रद्धा को सम्यक्त्व
कहा है। द्रव्य निरपेक्ष पर्याय तो गधे के सींगवत् हुई।(२) नौ की श्रद्धा तो रागवाली ही होती है। सम्यक्त्व में राग का निषेध पहले निश्चय नय के प्रकरण में किया जा चुका है कि आत्मानुभूति दोनों नयों से पार है। जब तक दोनों नयों का आश्रय है तब तक मिथ्यादृष्टि है। उसका सर्वथा आश्रय छूटने पर सम्यग्दृष्टि है।मात्र नौ पदार्थों की श्रद्धा तो मिथ्याष्टिको भी होती है।(३)सम्यक्व मेंराग अंश का निषेध है जिसका यह आगम प्रमाण है-श्री पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नं. २१२।
येनांशेन सुदृष्टिस्तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागरतेलांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१२॥ अर्थ-एक अखण्ड पर्याय के जितने अंश से सम्यग्दर्शन है, उतने अंश से इस साधक के बंध नहीं है किन्तु जितने अंश से राग है ( शुभ-अशुभ विकल्प है ) उत्तने अंश से इस साधक के बन्ध होता है। सम्यक्त्व में राग मानने से वह बंध का कारणा होगा और फिर रत्नत्रय मोक्ष का नहीं संसार का कारण हो जायेगा। (४) क्या किसी शास्त्र में मोक्ष मार्ग और प्रकार का है। किसी में और प्रकार है? किसी में रत्नत्रय से मक्ति है तो क्या किसी में राग से मक्ति है? नहीं। सब जैन शास्त्रों में चाहे वे किसी अनुयोग के क्यों न हों, मात्र शुद्ध भाव को ही रत्नत्रय कहा है। राम को नहीं। (५) जिस शास्त्र में राग को रत्नत्रय कहा हो वह जैन शास्त्र नहीं है। सर्वज्ञ भाषित नहीं है। अज्ञानियों की कल्पना मात्र है। प्रश्न - अध्यात्म में शुद्ध भाव को रत्नत्रय कहते हैं किन्तु चरणानुयोग में तो शुभ राग को रत्नत्रय कहते हैं ? उत्तर - यह भी आपकी धारणा सोलह आने मिथ्या है। श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय तो चरणानुयोग का ग्रंथ है। उसमें स्पष्ट लिखा है
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताऽभिनिवेशविविक्तमात्मरूपतत ॥२२॥