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द्वितीय खण्ड/चौथी पस्तक
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रूप ही दृष्टि में आयेगा। जो नौ तत्व रूप है वही तो शुद्ध है। इसलिये वैभाविक परिणमन की अपेक्षा जीव नौ रूप है। स्वभाव की अपेक्षा से नौ ही शुद्ध जीव रूप है क्योंकि चाहे जिस पर्याय में उसका पर्याय रूप अनुभव न करके द्रव्य रूप अनुभव कर लिया जाय। इस प्रकार नौ पदार्थों की भले प्रकार सिद्धि करके अब उनसे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है यह कहते हुये विषय को संकोचते हैं:
अतस्तत्वार्थश्रद्धानं सूत्रे सददर्शन मतम् ।
तत्तवं नव जीवाया यथोद्देश्याः क्रमाटयि ॥ ९५५ ॥ अर्थ-इसलिये श्री समयसारजी सूत्र १३ में तत्वार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन माना गया है। वे तत्व नौ जीवादिक हैं और कम से कथन करने योग्य हैं। ___भावार्थ-यहाँ सूत्र शब्द मोक्षशास्त्र का सूचक नहीं है क्योंकि उसमें सात तत्व माने गये हैं किन्तु श्री समयसार के सूत्र १३ से आशय है जिसको ग्रन्थकार ने स्वयं अगले ९५७ में स्पष्ट कर दिया है। मोक्षशास्त्र का सूत्र भी अर्थ करने से कुछ हानि तो है नहीं पर ग्रन्थकार का आशय उससे नहीं है।
तरलेश्यो यथा जीवः स्यादजीवस्तथास्तवः |
बन्ध: स्यात्संवरश्चापि निर्जरा मोक्ष इत्यपि || ९५६॥ अर्थ-उसका कथन इस प्रकार है। पहला जीव,फिर अजीव फिर आस्त्रव, बन्ध, संबर,निर्जरा और मोक्ष। ये सब पर्याय रूप हैं। जीव अजीव सामान्य, शेष विशेष, ऐसा अर्थ यहाँ नहीं है।
सप्तैते पुण्यपापाभ्यां पदार्थारते नव स्मृताः ।
सन्लि सहर्शनस्योच्चैर्विषया भूतार्थमाश्रिताः ॥ ९५७॥ अर्थ-ये सात पुण्य-पाप सहित वे नौ पदार्थ माने गये हैं भूतार्थ आश्रित वे वास्तव में सम्यग्दर्शन के विषय हैं।
भावार्थ ९५५-५६-५७-उपर्युक्त तीनों सूत्र अक्षरशः श्री समयसार का सूत्र १३ है। अतः जो अर्थ श्री कुन्दकुन्द आचार्य देव ने उसका किया है वह ही यहाँ लागू होता है। सो हम स्वयं अर्थ न लिख कर उसी के आधार से लिखते हैं। श्री समयसारजी में यह विषय गाथा ११ से चालू हुआ है। वह गाथा इस प्रकार है:
वहारोऽभूयत्थो भूयस्थो टेसिदो दु सुद्धणओ ।
भूयत्थमरिसदो खनु सम्माइट्ठी हवइ जीतो || ११ ॥ अर्थ-व्यवहार नय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है; ऐसा ऋषीश्वरों ने बताया है। जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह जीव निश्चय से (वास्तव में ) सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ-व्यवहार कहो, अभूतार्थ कहो, विशेष कहो या नौ तत्त्व कहो एक ही बात है। निश्चय कहो, शुद्ध कहो, भूतार्थ कहो, सामान्य कहो, एक ही बात है। अब आवार्य कहते हैं कि नौ तत्त्व भेद रूप हैं। इनके विचार में राग होता है। अत: इनका आश्रय सम्यग्दर्शन नहीं है किन्तु इनमें अन्वय रूप से पाये जाने वाला जो सामान्य है उसको जो कोई आश्रय करता है वह सम्यग्दृष्टि है। क्योंकि वह अभेद रूप है। उसके आश्रय से राग नहीं होता किन्तु शुद्धभाव होता है। और सम्यदर्शन शुद्ध भाव का नाम है। यह तो श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव की गाथा का अर्थ है। अपने पञ्चाध्यायी के प्रकृत विषय पर आइये जिसको समझाने के लिये यह गाथा ली है (१) इस गाथा से यह स्पष्ट हो गया कि जीव सामान्य विशेषात्मक है। अत: शिष्य ने जो चार प्रश्न किये थे उनका उत्तर यह आया कि दोनों इकटे हैं। फिर जो उसने यह कहा था कि शुद्ध सर्वथा भिन्न है , अशुद्ध (नौ तत्व) सर्वथा भित्र हैं। एक को ले लिया जाय एक को छोड़ दिया जाय उसका उत्तर यह है कि प्रदेश एक ही हैं। वस्तु एक ही है अतः ऐसा नहीं हो सकता किन्तु ऐसा है कि नौ तत्व अभूतार्थ हैं उनका आश्रय न किया जाय किन्तु उनकी उपेक्षा करके सामान्य का आश्रय किया जाय। इस प्रकार हे शिष्य जिस शुद्ध को सम्यक्त्व का विषय माना है वह विधि इस प्रकार है। श्री पञ्चाध्यायीकार ने ९०१ से १४१ तक का सब विषय इस एक सूत्र पर से निकाला है। यह सब कथन इस भी समयसार के एक सूत्र का भाष्य है। वह इसप्रकार