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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ-एक शक्ति की एक समय में एक ही पर्याय तो होगी चाहे शद्ध हो या अशुद्धाशद्ध किया तो अशुद्ध क्रिया के नाश से होती है। यदि शुद्ध क्रिया होने पर भी अशुद्ध किया रहेगी तो फिर वह नित्य हो जायगी क्योंकि शुद्ध से अशुद्ध का नाश होता है पर तुम शुद्ध परिणमन होने पर भी अशुद्ध मानते हो। फिर तो वह अशुद्धता नित्य हो जायेगी।
अथ सत्यामशुद्धायर्या बन्धाभावो विरुद्धभाक ।
नित्यायामथ तस्यां हि सत्या मुक्तेरसम्भवः ॥ २५१॥ अर्थ-और अशुद्ध किया के रहने पर बन्ध का अभाव विरुद्ध ठहरता है और उसके नित्य रहने पर मुक्ति की असम्भवता है।
भावार्थ-जब अशुद्धता नित्य रहेगी तो उसका कार्य बंध भी होता रहेगा। और बन्ध का फल संसार भी होता रहेगा फिर आप बंध का अभाव या मोक्ष का होना नहीं कह सकते। धर्म करना निष्फल हो जायेगा। सब खेल ही बिगड़ जायेगा।
तत: सिद्धं यदा येन भावेजात्मा समन्वितः ।
सदानन्यगतिस्तेन भावेजात्मास्ति तन्मयः ||९५२॥ अर्थ-इसलिये यह सिद्ध हुआ कि आत्मा जिस समय जिस भाव से युक्त है उस समय दूसरे भाव से युक्त न रहता हुआ आत्मा उसी भाव से तन्मय है।
भावार्थ-इसलिये आत्मा शुद्ध होगा या अशुद्ध । एक समय में एक रूप ही होगा। तथा जिस रूप होगा वह उसी का परिणमन, पर्याय, कार्य, कर्म होगा। और वह स्वयं उसका कर्ता होगा । कां कर्म में अनन्यपना होगा। (श्री प्रवचनसार गाथा ८)।
तरमाच्छुभ: शुभेनैव स्यादशुभोऽशुभेन यः ।
शुद्धः शुद्धेन भावेन तदात्वे तन्मयत्वतः ॥ ९५३॥ अर्थ-इसलिये जो (आत्मा) शुभ भाव से परिणत है वह शुभ ही है, जो अशुभ भाव से परिणत है वह अशुभ ही है और जो शुद्ध भाव से परिणत है वह शुद्ध ही है क्योंकि उस समय उसी भाव से तन्मय है।
भावार्थ-जैसा ऊपर कहा है आत्मा का वह परिणमन दो प्रकार का होता है। शुद्ध या अशुद्ध । अशुद्ध परिणमन के दो अवान्तर भेद हैं - (१) शुभ (२) अशुभाशुभ में पुण्य भाव से तन्मय होता है। अशुभ में पाप भाव से तन्मय होता है। शुद्ध में निजभाव से तन्मय होता है। जिस समय जो भाव होता है आत्मा स्वयं उस समय उस भाव से परिणमित होता है । कर्ता कर्मपना है। अनन्यत्त्व है। पर्याय दृष्टि से वैसा ही है। (श्री प्रवचनसार गाथा १)।
ततोऽनन्तरं तेभ्यः किंधिछुद्धमनीदृशम् ।
शुद्ध नवपटान्येत तद्विकारादृते परम् ॥ ९५४ ।। अर्थ-इसलिए उन नौ पदार्थों से कोई अनुपम शुद्ध भिन्न पदार्थ नहीं है किन्तु उस विकार के बिना नौ पद ही परं शुद्ध हैं। यदि नौ पदार्थ रूप परिणत आत्मा के नौ पदों को गौण करके अनुभव किया जावे तो वे नौ पद ही शुद्ध आत्मा हैं।
भावार्थ-इसलिये भाई जैसा तू कहता है कि शुद्ध व्यक्त ( प्रगट ) है और अशुद्धता उसके ऊपर परदेवत् है तथा शुद्धत्व अशुद्धत्व दोनों सर्वथा भिन्न हैं ऐसा नहीं है। तो फिर कैसे है? ऐसे है कि उसके शुद्ध-अशुद्ध सब परिणामों को मिलाकर जाति भेद से नौ कहे हैं। उन्हीं के नाम नौ तत्व हैं। उन्हीं का नाम अशुद्धता है। वे जीव के कर्म हैं। और यदि उन शुद्ध-अशुद्ध सब नैमित्तिक भावों को लक्ष्य में न लेकर केवल वस्तु का स्वभाव लक्ष में लिया जाये तो इस नैमित्तिक विकार ( परिणमन) के बिना वह वर्तमान में ही शुद्ध है अर्थात् वह इन नौ तत्त्व रूप दृष्टि में न आकर शुद्ध