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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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शास्त्र में बादल का दृष्टांत आता है। हम तो समझते हैं कि वह ज्ञान की शक्ति को रोकने का दृष्टांत आता है। पर वे लोग ऐसा समझते हैं कि वह केवल ज्ञान साक्षात् विद्यमान है ऊपर बादलवत् कर्म है। हम तो कहते हैं कि कर्म हटते ही केवल ज्ञान रूप परिणत हो जाता है। वे कहते हैं कि कर्म हटते ही दीखने लगता है। पर यह भूल है केवल ज्ञान तो पर्याय है। कहीं एक समय में दो पर्याय नहीं होती। यहाँ शंकाकार इसी अभिप्राय का है वह कहता है कि सम्यक्त्व का विषय जो शुद्ध (केवल ज्ञान) है वह सर्वथा शुद्ध है। विकार उसमें रैचमात्र नहीं है। अज्ञान से - विकार से - वह बिल्कुल भिन्न है। जीव का स्वभाव है। निज स्वरूप है और जीव में सदा प्रकट प्रकाशमान रहता है। प्रकाशमान होने पर भी दीखता क्यों नहीं उसके लिये आगे और कहता है कि -
न पश्यति जगद्यात्रन्मिथ्यान्धतमसा ततम् ।
अस्तमिथ्यान्धकारं चेत पश्यतीर्द जाज्जवात ||९४८ ॥ शंका चालू-उस शुद्ध स्वरूप को जगत् तब तक नहीं देख पाता है जब तक मिथ्यात्व रूप अन्धकार से व्यास है। ज्यों ही मिथ्या अन्धकार नाश होता है। जगत् इसको तुरन्त देख लेता है।
भावार्थ-जिस प्रकार सूर्य विद्यमान है। उसका प्रकाश भी विद्यमान है वह शुद्ध भी है। उसमें कोई विकार भी नहीं है पर जब तक ऊपर बादल है तब तक दीखता नहीं है। ज्यों हो बादल हटता है तरन्न दाखन लगता है। उसी प्रकार वह शुद्ध तत्त्व विद्यमान है। उसका प्रकाश भी विद्यमान है वह शुद्ध भी है। उसमें कोई विकार भी नहीं है। पर उस पर मिथ्यात्व अन्धकार रूप अज्ञान का बादल छाया हुआ है उसके हटते ही तुरन्त वह शुद्ध तत्व दीखने लगता है। आप को मालूम होना चाहिये कि सांख्य मत द्रव्य और पर्याय की भिन्न-भिन्न शुद्धता के स्वरूप को नहीं समझता किन्तु वह सदा जीव को सर्वथा शुद्ध प्रकद-व्यक्त-प्रकाशमान मानता है और ऊपर माया का परदा मानता है। हमारा शंकाकार भी कुछ ऐसे ही विचारों का जान पड़ता है। श्वेताम्बर भी ऐसा मानता है। कुछ दिगम्बर निश्चयाभासी भी ऐसा ही मानते हैं उन सब के अज्ञान को दूर करने के लिये तथा यह स्पष्ट करने के लिये कि हमें सम्यक्त्व का विषय भूत शुद्ध स्वभाव रूप से सामान्य रूप से इष्ट है। विशेष में उसी का परिणमन नौ रूप है, इस शंका को उपस्थित किया है। द्रव्य इस समय शक्ति रूप से शुद्ध है। पर्याय में अशुद्ध परिणत है। पर्याय में तो जब शुद्ध परिणमन करेगा। तब शद्ध होगा। एक साथ शदध-अशुद्ध दोनों परिणामन नहीं रहा करते। यहाँ तो पर्याय के विशेष परिणमन को गौण करके शुद्ध अनुभव की बात है और उसी शुद्ध अनुभव का नाम सम्यक्त्व है। श्री अमृतचन्द्र गुरुदेव की बुद्धि की विचक्षणता का कमाल है। हम तो उस लेखक पर मुग्ध हैं। प्रत्येक विषय को ऐसी विद्वतापूर्वक पीसा है कि कमाल किया है। अब इसका उत्तर उसे ९४९ से १५७ तक समझायेंगे।
.समाधान ९४९ से १५७ तक नै विरुद्धधर्मत्वाच्छुद्धाशुद्धत्तयोद्धयोः ।
नैकस्यैकपदे द्वे स्तः शुद्धाशुद्धे कियेऽर्थतः ॥ ९४९॥ अर्थ-ऐसा नहीं है अर्थात् शुद्ध-अशुद्ध दोनों एक पदार्थ के एक समय में नहीं हैं क्योंकि शुद्धत्व और अशुद्धत्व इन दोनों में विरुद्ध धर्मपना है। एक पदार्थ के एक पर्याय में शुद्ध किया और अशुद्ध क्रिया दोनों एक साथ युगपत नहीं हो सकती हैं।
भावार्थ-हम आपको पहले यह समझा चुके हैं कि आत्मा में एक वैभाविक शक्ति है और उसके अशद्ध तथा शद्ध दोनों परिणमन क्रमशः होते हैं पहले अशुद्ध फिर शुद्ध तथा दोनों परिणमन एक साथ नहीं होते यह भी पहले बता चुके हैं। इसलिये तुम्हारी मान्यता के अनुसार शुद्ध-अशुद्ध दोनों परिणमन तो एक साथ हो ही नहीं सकते और न उनका यहाँ प्रकरण है। यहाँ द्रव्य शुद्ध पर्याय अशुद्ध से आशय है।
अथ सत्यां हि शुद्धाया क्रियायामर्थतश्चितः ।
स्यादशुद्धा कथं वा चेदरित नित्या कथं न सा || ९५0 । अर्थ-आत्मा की पर्याय में शुद्ध क्रिया परिणमन रूप होने पर उसी समय अशुद्ध क्रिया कैसे हो सकती है ? यदि हो सकती है तो फिर वह (शुद्ध क्रिया) नित्य क्यों न होवे ?