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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भी, फिर भी उसके उपदेश से क्या लाभ ? उसने फिर नौ तत्त्वों में अवाच्यता सिद्ध की। उत्तर देते हैं कि ये सर्वथा अकिंचित्कर नहीं हैं किन्तु ये नौ साधन हैं शुद्ध तत्व साध्य है। साधन के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती। इनके बिना माने तुझे शुद्ध की भी प्राप्ति न होगी। क्योंकि वह इन्हीं नौ में तो रहता है। यही तो उसकी प्राप्ति के साधन हैं। पर्याय के ज्ञान बिना पर्यायी को कोई नहीं जान सकता।
तीसरी बार नौ पदार्थों में वाच्यता की सिद्धि ९४५-४६
शंका समाधान ९४५-९४६ नावाच्यता पदार्थानां स्यादकिंचित्करत्वतः ।
सार्थाजीति यतोऽवश्यं तक्तव्यानि नवार्थतः ॥४५॥ अर्थ-इन नौ पदार्थों में अकिंचित्करपने से अवाच्यता नहीं है क्योंकि वे सार्थक (प्रयोजनभूत) हैं। और नौ के नौ पदार्थपने से अवश्य कहने योग्य हैं। क्योंकि
न स्यात्तेभ्योऽतिरिक्तस्य सिद्धिः शुद्धस्य सर्वतः । साधनाभावतस्तस्य
ताथानुपलब्धितः ॥ ४६॥ अर्थ-उनसे सर्वथा भिन्न शुद्ध की सिद्धि नहीं है। वह इस प्रकार के उस (शुद्ध) के साधन का अभाव होने से अप्राप्ति है अर्थात ये नव पदार्थ साधन है.शद साध्य हैं क्योंकि इन नौ पदार्थों में ही वह अन्वय रूप से पाया जाता है। इसलिये ये प्रयोमा होने से कान है।मान और हो योन्य है अन्यथा तुझे शुद्ध की भी प्राप्ति न होगी। कोरा रह जायेगा।
अगली भूमिका-अब तक तो शिष्य शुद्ध और नौ तत्व दोनों के प्रदेश ही भिन्न मान रहा था। अब एक मानता है पर फिर भी भूल करता है। वह इस प्रकार कि हम तो द्रव्य में शुद्ध मानते हैं पर्याय में वर्तमान अज्ञान रूप परिणमित मानते हैं। वह इस सापेक्षता को न समझ कर शुद्ध को भी व्यक्त मानता है और अशुद्धता को भी व्यक्त मानता है अर्थात् शुद्ध-अशुद्ध दोनों द्रव्य और पर्याय में एक समय न मानकर शुद्ध-अशुद्ध दोनों एक साथ व्यक्त (प्रकट) पर्याय रूप सर्वथा भिन्न-भिन्न मानता है। सामान्य शुद्धता को समझा ही नहीं। श्री समयसारजी में आया है कि विकार रूप नौ तत्त्व स्वभाव के ऊपर तरते हैं। वहाँ से शिष्य को भूल हुई है। उसका अर्थ तो यह था कि मूल पदार्थ में विकार होने पर भी, वह विकार उस मूल वस्तु से ऐकमेक नहीं हो जाता। मूल वस्तु का मूल स्वभाव नष्ट नहीं हो जाता । दोनों का एक द्रव्य नहीं हो जाता। तादात्म्य नहीं हो जाता किन्तु विकार रूपएक समय के लिये वस्तु का परिणमन है, स्वभाव के आश्रय से तुरन्त नष्ट हो जाता है, क्षणिक है, यह ऊपर तरने का अर्थ है न कि केवल ज्ञान दर्पणवत् है और विकार ऊपर धूलीवत् पड़ा है। या पानी पर काईवत् सर्वथा भिन्न है ऐसा नहीं है किन्तु जैसे स्फटिक मणि का कालापन है या पानी में गर्मी है ऐसा है, गर्मी हटते ही पानी ठण्डे रूप परिणमता है। वैसे विकार मिटते ही केवलज्ञानरूप परिणमता है यह ऊपर तरने का अर्थ है। जैसे स्वभाव से स्फटिक माणि उसी समय शुद्ध है, पानी उसी समय ठण्डा है, उस प्रकार स्वभाव से आत्मा उसी समय केवल ज्ञानी है, शुद्ध है। यह शुद्धता का और विकार का अर्थ है। इसी भूल के आधार पर उसकी शंका है। चौथी बार नी पदार्थों में वाच्यता की सिद्धि ९४७ से ९५७ तक
शंका ९४७-९४८ जनु चार्थान्तरं तेभ्यः शुद्धं सम्यक्त्तगोचरम् ।
अस्ति जीवस्य रतं रूपं नित्योटोतं निरामयम् ॥ ९४७॥ शंका-उन नौ पदार्थों से सर्वथा भिन्न शुद्ध तत्व है। वह सम्यक्त्व का विषय है। जीव का निज स्वरूप है। नित्य प्रकाशमान (प्रगट ) है और निरामय अर्थात् सब प्रकार के विकार से रहित है।
भावार्थ-हम तो ऐसा मानते हैं कि केवल ज्ञान इस समय शक्ति रूप से है। पर्याय में उसी का अज्ञान रूप परिणमन हो रहा है पर श्वेताम्बर आम्नायवाले या कुछ दिगम्बर निश्चयाभासी ऐसा मानते हैं कि केवल ज्ञान अभी मौजूद है।