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________________ द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक २६५ भावार्थ-और जो आठ दृष्टांत हैं उनमें भी एकमूल पदार्थ है। एक संयोगी पदार्थ है। उस संयोग के कारण मूल पदार्थ की बिगड़ी हुई दशायें हैं। इसी प्रकार उन सब दशाओं की उपेक्षा करके वह मूल पदार्थ देखा जाता है। अर्थात् उन पदार्थों की बिगड़ी दशायें भी हैं और उनमें ही वह मूल शुद्ध पदार्थ भी है। दोनों हैं। जिस प्रकार सोने के दृष्टांत के साथ आत्मा को दृष्टान्त बनाकर घटाया था उसी प्रकार इन आठ दृष्टांतों में भी घटा लेना चाहिये क्योंकि हमारा साध्य जो नौ पदार्थ और शुद्ध आत्मा है उनके लिये ये दृष्टांत बराबर अनुकूल साधन हैं। इनसे नौ पदार्थों की और उनमें रहने वाले शद्ध आत्मा की सिद्धि तेरी समझ में बराबर आ जायेगी जिसके लिये इतने दांतों का प्रयोग किया गया है। तोयमग्नं यथा पद्मपत्रमन्त्र तथा न तत् । तदरपृश्यस्वभावत्वादर्थतो नास्ति पत्रतः ॥९३३॥ अर्थ-जैसे कमलनी का पत्ता पानी में ही पाया जाता है। पानी में दबा हुआ होने पर भी कमलनी का पत्ता पानी रूप नहीं है। उससे अस्पृश्य स्वभाव होने से वस्तु रूप से पत्ते में पानी नहीं है। उसी प्रकार यद्यपि जीव नौ तत्त्व में ही पाया जाता है पर परसंयोग-वियोग पूर्वक होने वाले व्यवहार नय के विषयभूत नौ पदार्थों से शुद्ध दृष्टि की अपेक्षा से जीव तत्व भिन्न है इसलिये नौ को मानकर फिर उनकी उपेक्षा करके शुद्ध का अनुभव किया जाता है। सकर्दम यथा वारि वारि पश्य न कर्दमम् । दृश्यते तदवस्थायां शुद्ध वारि विपङ्कवत् ॥ ९३४।। अर्थ-जैसे पानी कीचड़ में ही पाया जाता है तो भी कीचड़ सहित पानी में पानी देख, कीचड़ नहीं। उस अवस्था में भी कीचड़ रहित पानी शुद्ध देखा जाता है। उसी प्रकार यद्यपि जीव नौ तत्वों में ही पाया जाता है तथा नव तत्वों में एकमेक जैसा मालुम पड़ता है परन्तु शद्ध जीव इन नौ तत्वों से भिन्न है। इसलिये नौको मानकर फिर उनकी उपेक्षा करके शुद्ध का अनुभव किया जाता है। अग्निर्यथा तृणाग्निः स्यादुपचारातृणं वहन् । जाग्निस्तृणं तृणं नाग्निरग्निरग्नितृणं तृणम् || ९३५ ॥ अर्थ-जैसे अग्नि तृण, कण्डा, कोयला, लकड़ी आदि आकारों में ही पाई जाती है तथा अग्नि तण आदि (तिनके ) को जलाती हुई उपचार से 'तृणाग्नि' कहलाती है। वास्तव में तो अग्नि तृण नहीं है , तृण अग्नि नहीं है। अग्नि अग्नि है-तृण तृण है। इसी प्रकार जीव भी नव तत्वों में देखने में आता है परन्तु वह वस्तुत: नव तत्वरूप नहीं हो जाता है। जीव जीवरूप है।नी तत्त्व नौ तत्व रूप है। इसलिये नौ को मानकर फिर उनकी उपेक्षा करके शुद्ध का अनुभव किया जाता है। प्रतिबिम्बं यथाटरों सन्निकर्षात्कलापिनः । तदात्ते तदवस्थायामपि तत्र कुत: शिरवी ॥ ३६॥ अर्थ-जैसे दर्पण में मोर की निकटता से प्रतिबिम्ब है। उस समय उस अवस्था में भी दर्पण में मोर कहाँ ? उसी प्रकार जीवादिक नौ तत्व जीव की नव अवस्थायें हैं पर वे वास्तविक त्रिकालिक जीव स्वरूप नहीं हैं। इसलिये नी को मानकर फिर उनकी उपेक्षा करके शुद्ध का अनुभव किया जाता है। जपापुष्योपयोगेन विकारः स्फटिकाथ्मनि । अर्थात्सोऽपि विकारश्चावास्तवस्तत्र वस्तुतः ॥ ९३७ ।। __अर्थ-जपा पुष्प की निकटता से स्फटिक पत्थर में विकार होता है। वास्तव में उस पत्थर में वस्तुपने से वह विकार अवास्तविक है। उसी प्रकार जीवादिक नौ तत्वों में जीव का प्रतिभास होता है पर वह वास्तविक नहीं है परन्तु केवल व्यबहार दृष्टि से है-शुद्ध दृष्टि से नहीं है ।शुद्ध दृष्टि से तो जीव तत्व अद्वैतरूप ही है। उसमें इन नौ अवस्थाओं का प्रतिभास प्रतीत नहीं होता। इसलिये नौ को मानकर फिर उनकी उपेक्षा करके शुद्ध का अनुभव किया जाता है। ज्ञानं स्वयं घटज्ञान परिच्छिन्दाथा घटम् । नार्थाज्ज्ञानं घटोऽयं स्याज्ज्ञानं ज्ञानं घटो घटः ॥ ९३८॥
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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